गैलीलियो की मृत्युदंड के सैकड़ों साल बाद नब्बे के दशक में चर्च ने अपनी गलती को मानते हुए दुनिया से अपनी भूल पर माफ़ी मांगी थी, वो भी तब जब इतने सारे सामाजिक बदलाव हुए पूरी दुनिया में वैज्ञानिक चेतना का विकास हुआ. जनमत इस बात को बहुत पहले ही जान गया था कि गैलीलियो सही था और चर्च गलत. चर्च को इस बात का बखूबी एहसास हो गया था कि वैज्ञानिक चेतना से विकसित समाज उसे नकार चुका है, फिर भी चर्च ने देर से ही सही अपनी गलती स्वीकार किया और माफी मांगी.
इसी संदर्भ में उनका भी स्टेटमेंट देखा जाना चाहिए कि भारतीय जनमानस में ग्लोबलाइजेशन उदारीकरण आर्थिक सामाजिक विकास तथा संस्कतिकरण के चलते इतना बदलाव तो हो ही चुका है कि जातीय श्रेष्ठता ईश्वर ने नहीं बनाई अपितु इसे बनाया गया है. इसे अपने फायदे के लिए ही बनाया गया है. यदि ऐसा नहीं होता तो एक दिन ईश्वर जो धर्म का मूल भूत आधार है उस पर प्रश्न चिन्ह खड़ा हो जाता और उसे नकार दिया जाता.
हालिया धर्मिक या साहित्यिक ग्रन्थ पर उपजा विवाद उसी दिशा में बढ़ता हुआ संकेत है. वक्त की नजाकत को देखते हुए धर्म के मूलभूत आधार ईश्वर, धार्मिक ग्रन्थों को बचाने के उपक्रम में मिनिमम लॉस थियरी को फॉलो करते हुए पुरोहितों को इसका जिम्मेदार ठहरा कर ईश्वर की जान बचाई गयी है. जबकि पुरोहित तो पहले से ही जानते हैं कि कोई ईश्वर नहीं है.
बस किसी तरह जर्जर हो चुकी व्यवस्था को बचाये रखना है क्योंकि पहले की तरह का समाज अब ईश्वर केंद्रित नहीं है, अब मानव केंद्रित है. यदि मानवीय मूल्यों को अपमानित करने वाला कोई धर्म ग्रन्थ हो या ईश्वर, वो खारिज हो जाएगा और उसका भी मूल्यांकन होने लगेगा.
पहले के समय में ईश्वर को अपमानित करने पर मनुष्य को दंडित किया जाता था किंतु अब के समय में यदि ईश्वर या कोई धर्म ग्रन्थ मानव को अपमानित करेगा तो मानवीय मूल्यों के उल्लंघन में उल्टे ईश्वर को ही दंडित किया जाएगा. मैं इसीलिये बार बार कहता हुं ईश्वर ग्रन्थ ये सब मानवों द्वारा बनाये गए हैं और अगर ईश्वर ने गलती की तो उसे हम मनुष्यों की अदालत में पेश होना पड़ेगा और जरूरत पड़ी तो दंडित भी किया जाएगा.
- करन यादव
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