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छापामार युद्ध : तेलंगाना के सशस्त्र किसान-संघर्ष (1946-51) के दिशानिर्देश

तेलंगाना के सशस्त्र किसान-संघर्ष (1946-51) का अध्ययन करते समय हमें इस विषय पर दिवंगत श्री पी. सुंदरैया की पुस्तक ‘तेलंगाना का जन-संघर्ष और उसके सबक’ में दो स्थानों पर कुछ ऐसे दिशानिर्देश मिले जिनका महत्त्व केवल उसी संघर्ष तक सीमित नहीं बल्कि अधिक व्यापक और सार्वभौम दिखाई देता है. प्रसंगवश, ऐसे दिशानिर्देशों का उल्लेख हमें इस विषय पर संघर्ष के दूसरे भागीदारों या बाद में आने वाले इतिहासकारों की रचनाओं में नहीं मिलता. यह बात भी ध्यान में रखने की है कि सुंदरैया स्वयं उस संघर्ष के चार महत्त्वपूर्ण नेताओं में एक थे और इसलिए तेलंगाना जन-संघर्ष के बारे में उनके विवरण को अनदेखा कर पाना संभव नहीं है.

तेलंगाना का संघर्ष मुख्यतः एक छापामार संघर्ष ही था इसलिए ऐसे संघर्ष के लिए ‘चे’ के बताए हुए नियमों में और तेलंगाना के दिशानिर्देशों में अगर गहरी समानता दिखाई पड़े तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिए.

यहां एक स्पष्टीकरण आवश्यक है. यहां यह बात सही है कि तेलंगाना के महत्त्व, संघर्ष चलने के तरीक़ों, उन दिनों (और बाद में भी) भारतीय राजसत्ता के मूल्यांकन, क्रांति के चरण संबंधी संघर्ष आदि प्रश्नों को लेकर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) तथा नक्सलवादी आंदोलन के विभिन्‍न धड़ों के बीच बेहद गंभीर मतभेद पाए जाते हैं. लेकिन यहां इन मतभेदों की गहराई में जाना न तो संभव है और न ही आवश्यक है. कारण कि ख़ुद संघर्ष के लिए इन दिशानिर्देशों का जो महत्त्व था, उससे इन तमाम मतभेदों के बावजूद इनकार करना संभव नहीं है. क्रांति का चरण चाहे ‘राष्ट्रीय जनवादी क्रांति’ का हो, जनता की जनवादी क्रांति’ का हो या फिर ‘नयी जनवादी क्रांति’ का हो, अगर बात छापामार संघर्ष की आएगी तो, मिसाल के लिए, यह दिशानिर्देश अपनी जगह वैध ही रहेगा कि ‘जहां तक संभव हो, यात्राएं रात में करनी चाहिए’ या फिर यह कि ‘आपको अपरिचित व्यक्तियों के साथ केवल साधारण विषयों के संबंध में बातचीत करनी चाहिए, राजनीति के बारे में नहीं, न ही आपको राजनीति पर भाषण देना चाहिए.’

सुंदरैया की पुस्तक मूलतः अंग्रेज़ी में लिखी गई. हिन्दी में उसका अनुवाद दिवंगत श्री शंकरदयाल तिवारी ने किया था तथा समाजवादी साहित्य सदन, कानपुर ने 1974 में इसे प्रकाशित किया था. यहां दिए गए दिशानिर्देश इसी हिंदी अनुवाद से लिये गए हैं और दोनों उद्धृत अंशों में से हरेक अंश के नीचे संबंधित पृष्ठ-संख्याएं दे दी गई हैं. अलबत्ता अनुवाद की भाषा में कुछ मामूली फेरबदल अवश्य किए गए हैं; इनका उद्देश्य, भाषा, शैली, वर्तनी आदि की दृष्टि से दोनों उद्धरणों को बोधगम्य करना है. – संपादक

छापामार युद्ध : तेलंगाना के सशस्त्र किसान-संघर्ष (1946-51) के दिशानिर्देश
छापामार युद्ध : तेलंगाना के सशस्त्र किसान-संघर्ष (1946-51) के दिशानिर्देश

छापामार संघर्ष : एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझ

आंशिक छापामार संघर्ष

जैसे-जैसे संकट परिपक्व होता जाता है, जैसे-जैसे जनता की एकता, चेतना तथा संगठन में वृद्धि होती है, जैसे-जैसे पार्टी की शक्ति तथा प्रभाव का विकास होता है और कृषक आंदोलन को कुचलने के लिए शत्रु जैसे-जैसे अधिकाधिक निर्मम उपायों का सहारा लेता है, वैसे-वैसे यह प्रश्न अधिकाधिक विचारणीय होकर सामने आता जाएगा कि कब, कहां और किस प्रकार हथियार उठाये जाएं. चूंकि यह प्रश्न अत्यधिक व्यावहारिक महत्त्व का है, इसलिए यह नितांत आवश्यक है कि पार्टी इस प्रश्न का स्पष्ट तथा सुनिश्चित उत्तर देने में सक्षम हो.

यह समझ लेना चाहिए कि चूंकि भारत का क्षेत्र विशाल है, चूंकि देश के विभिन्‍न भागों में जनता की चेतना तथा जन-आंदोलन का स्तर असमान है, चूंकि कृषि संकट की तीव्रता में असमानता है और स्वयं पार्टी की शक्ति तथा प्रभाव में असमानता है, अतएव हर जगह किसान आंदोलन का विकास एक ही गति से नहीं हो सकता. इसमें संदेह नहीं कि समय से पूर्व होने वाले विद्रोहों तथा हर प्रकार के दुस्साहसवादी कार्यों से बचना चाहिए. साथ ही साथ यह नियम बनाना भी गलत होगा कि प्रत्येक विशिष्ट क्षेत्र में छापामार लड़ाई के रूप में सशस्त्र रक्षात्मक कार्यवाही तभी की जा सकती है जबकि देश के सभी भागों में आंदोलन ऊंचे उठकर विद्रोह के स्तर पर पहुंच जाए. इसके विपरीत, आंदोलन के विकास के दौरान कई इलाक़ों में ऐसी परिस्थिति पैदा हो सकती है, जिसका तक़ाज़ा होगा कि छापामार युद्ध के रूप में सशस्त्र संघर्ष किया जाए. मिसाल के लिए, एक बड़े तथा भौगोलिक रूप से उपयुक्त क्षेत्र में जहां किसान आंदोलन जमीन तथा अनाज पर कब्जे के स्तर तक ऊंचा उठ गया है, वहां यह प्रश्न एक ज्वलंत और जीवंत प्रश्न बन जाएगा कि क़ब्जा किस प्रकार किया जाए और अधिकृत भूमि की रक्षा कैसे की जाए. पार्टी का यह मत है कि ऐसी परिस्थिति में वास्तविक किसान जन-आंदोलन तथा एकता के आधार पर पार्टी के नेतृत्व में किसान जनता का और विशेषकर सबसे दलित और शोषित हिस्सों का जो छापामार युद्ध, संघर्ष के अन्य स्वरूपों-जैसे कि जमींदारों के सामाजिक बहिष्कार, सामूहिक लगानबंदी संघर्ष, खेत मजदूरों की हड़ताल-के साथ मिलाकर, शुरू किया जाएगा, उसका यदि सही तौर पर संगठन और नेतृत्व किया जाए तो उसका कई अन्य क्षेत्रों में जनता को प्रोत्साहित करने तथा सुदृढ़ बनाने वाला प्रभाव पड़ेगा और उनके अपने संघर्षों को भी उच्चतर स्तर पर ले जाया सकेगा.

जहां भी इस प्रकार के छापामार संघर्ष विकसित होते हैं वहां उनको हड़ताल तथा प्रदर्शनों के रूप में मजदूर वर्ग की जन-कार्रवाइयों के साथ, विशेषकर पड़ोस के इलाक़ों में होने वाले जन-संघर्षों के साथ जोड़ना चाहिए. अत्यधिक सावधानी के साथ की गई तैयारी तथा सभी तत्त्वों के मूल्यांकन के आधार पर शुरू करके छापामार संघर्षों को अधिक से अधिक साहस तथा दृढ़ता के साथ चलाना चाहिए और अपने पास के सभी साधनों द्वारा आंदोलन की उपलब्धियों की रक्षा करनी चाहिए.

इसके साथ ही साथ, जब शत्रु की सेनाएं बहुत बड़ी संख्या में छापामार क्षेत्रों के विरुद्ध केंद्रित कर दी गयी हों और छापामार सेनाओं के हार जाने तथा पूरी तरह से तबाह हो जाने का ख़तरा हो, तो पार्टी को अधिक से अधिक लचीलेपन के साथ काम करना चाहिए.

छाप़ामार संघर्ष-मुक्ति संघर्ष के अंग के रूप में

जब संकट गहरा होता जाएगा और किसानों का जन-आंदोलन भूमि तथा खाद्यान्नों पर क्रांतिकारी ढंग से अधिकार करने के स्तर तक ऊपर उठ जाएगा तो देश के विभिन्‍न भागों में अनिवार्य रूप से छापामार क्षेत्रों का जन्म होगा, जो अपने ऊपर दमन करने वाली स्थानीय शक्तियों को अपंग बना देंगे और ख़त्म कर देंगे. लेकिन उनके सामने शत्रु द्वारा घेरे जाने और मिटाए जाने का ख़तरा लगातार बना रहेगा.

देश के कई भागों में अपनी निजी सशस्त्र सेनाओं के साथ मुक्त क्षेत्रों की स्थापन से भी यह ख़तरा मिटेगा नहीं क्योंकि ख़द ये क्षेत्र भी चारों ओर से शत्रु की सेनाओं द्वारा घिरे हुए होंगे. अतएव केवल छापामार लड़ाई से, चाहे उसका विस्तार कितने ही बड़े पैमाने पर हो, भारत को ठोस परिस्थिति में, शत्रु पर विजय निश्चित ही नहीं पाई जा सकती.

जब परिपक्व हो रहा संकट विस्तृत पैमाने पर छापामार संघर्षों को जन्म देगा, जब छापामार सेनाएं कई क्षेत्रों में शत्रु के विरुद्ध लड़ रही होंगी, उस समय शहरों के महत्त्वपूर्ण उद्योगों में, विशेषतया यातायात व्यवस्था में, काम करने वाले मजदूरों को निर्णायक भूमिका अदा करनी होगी. छापामार सेनाओं के विरुद्ध तथा मुक्त क्षेत्रों के विरुद्ध शत्रु के आक्रमण को मजदूर वर्ग की विशाल हड़तालों के द्वारा रोकना तथा अपंग बनाना होगा.क्षजब छापामार संघर्षों की सैकड़ों धाराओं का शहरों में मजदूरों की आम हड़ताल तथा विद्रोहों के साथ संगम हो जाएगा तो शत्रु के लिए कहीं भी अपनी सेनाओं को केंद्रित करना असंभव हो जाएगा और खुद उसके ही सामने पराजय तथा विनाश का खतरा उठ खड़ा होगा. सरकार की सशस्त्र सेनाओं के अंदर संकट बढ़ेगा और उनके बड़े हिस्से क्रांति की शक्तियों के साथ मिल जाएंगे.

छापामार संघर्ष तथा व्यक्तिगत आतंकवाद

छापामार संघर्ष की आक्रमणात्मक प्रकृति के बावजूद, यह आवश्यक है कि हमारे आंदोलन तथा प्रचार में प्रारंभिक और छापामार संघर्ष की रक्षात्मक प्रकृति पर जोर दिया जाए. यहां यह कहना आवश्यक है कि छापामार संघर्ष का उद्देश्य सबसे बढ़कर यह है कि सरकार तथा उसके बलप्रयोग के साधनों के हमलों से किसानों की रक्षा की जाए. ऐसा करते समय विशेष ध्यान इन मांगों पर देना चाहिए जिनके लिए किसान लड़ रहे होते हैं, तथा सरकार के नृशंस कार्यों पर देना चाहिए जिनसे बाध्य होकर किसान शस्त्र उठाते हैं. इसके साथ-साथ यह भी बताना आवश्यक है कि हिंसा तथा रक्तपात की जिम्मेदारी सरकार पर है.

छापामार संघर्ष को अकसर गलती से व्यक्तिगत आतंकवाद मान लिया जाता है. यह कहा जाता है कि व्यक्तिगत आतंकवाद छापामार संघर्ष का एक अंग है, और तो और, वह उसका एक अंग ही नहीं है बल्कि छापामार संघर्ष का एक आधार भी है. यह बिलकुल गलत है. इससे भी बड़ी बात यह है कि व्यक्तिगत आतंकवाद छापामार संघर्ष के सारतत्त्व तथा उसके लक्ष्य के विपरीत होता है और उसका छापामार संघर्ष से कोई मेल नहीं है. पहली बात यह है कि व्यक्तिगत आतंकवाद का लक्ष्य विशेष व्यक्तियों को नष्ट करना होता है, और वह सामंतवादी शोषकों की शासन-प्रणाली तथा जनता की गुलामी को नष्ट करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए काम नहीं करता. दूसरी तरफ़, छापामार संघर्ष का लक्ष्य विशेष व्यक्तियों को नष्ट करना नहीं होता बल्कि साधारण जनता के लम्बे संघर्ष के द्वारा घृणित शासन-प्रणाली को नष्ट करना होता है. दूसरी बात यह है कि आतंकवाद को अंजाम देने वाले व्यक्तिगत आतंकवादी या आतंकवादियों के छोटे-छोटे जत्थे होते हैं, जो जनता से अलग रहकर तथा जनता के संघर्ष से किसी प्रकार का संबंध रखे बगैर काम करते हैं, जबकि छापामार संघर्ष वर्तमान शासन-प्रणाली के विरुद्ध जनता के संघर्षों से घनिष्ठ सम्पर्क रखकर चलाया जाता है.

चूंकि व्यक्तिगत आतंकवाद का लक्ष्य शासन-प्रणाली के विरुद्ध न होकर विशेष व्यक्तियों के विरुद्ध होता है, इसलिए वह जनता के मस्तिष्क में यह हानिकारक भ्रम उत्पन्न करता है कि शासन-व्यवस्था के प्रतिनिधि व्यक्तियों का खात्मा करके शासन-व्यवस्था को समाप्त करना संभव है, कि शासन-व्यवस्था को नष्ट करना महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि शासन-व्यवस्था के प्रतिनिधि व्यक्तियों को नष्ट करना महत्त्वपूर्ण है और यह कि सबसे बड़ी बुराई शासन-व्यवस्था का अस्तित्व नहीं है बल्कि शासन-व्यवस्था के कुछ विशेष तथा सबसे बुरे प्रतिनिधियों का अस्तित्व है जिन्हें नष्ट करना आवश्यक है. यह स्पष्ट है कि व्यक्तिगत आतंकवाद द्वारा पैदा की गई इस प्रकार की भावना से शासन-व्यवस्था के विरुद्ध जनता का आक्रमण कमज़ोर ही होता है तथा इस प्रकार जनता के विरुद्ध सरकार का संघर्ष आसान हो जाता है. जनता के छापामार आंदोलन को व्यक्तिगत आतंकवाद से सबसे प्रमुख हानि यहीं पर पहुंचती है.

चूंकि व्यक्तिगत आतंकवाद जनता द्वारा अंजाम नहीं दिया जाता है बल्कि जनता से अलग रहकर आतंकवादी व्यक्तियों द्वारा अंजाम दिया जाता है, इसलिए व्यक्तिगत आतंकवाद के फलस्वरूप जन-आंदोलन की भूमिका को अनुचित रुप से कम करके आंका जाता है तथा इसी प्रकार अनुचित रूप से आतंकवादियों की भूमिका को बढ़ा-चढ़ाकर आंका जाता है, जिनके बारे में कहा जाता है कि शक्तियों के बल पर, जनता के छापामार आंदोलन के विकास के बगैर ही जनता को मुक्ति दिला सकने की क्षमता है. यह स्पष्ट है कि व्यक्तिगत आतंकवाद द्वारा उत्पन्न की गई इस प्रकार की भावना आम जनता में निष्क्रियता ही पैदा कर सकती है और इस प्रकार छापामार संघर्ष के विकास को कमज़ोर करती है. यहीं पर क्रांतिकारी आंदोलन को व्यक्तिगत आतंकवाद से दूसरी मुख्य क्षति पहुंचती है.

संक्षेप में, व्यक्तिगत आतंकवाद जनता के छापामार संघर्ष को जारी करने की संभावना को हानि पहुंचाता है और उसे हानिकारक तथा ख़तरनाक समझकर उसका त्याग करना चाहिए.

छापामार युद्ध तथा व्यक्तिगत आतंकवाद से संबंधित कुछ प्रश्न

प्रश्न : क्या किसी विशेष क्षेत्र में, जहां छापामार युद्ध के लिए परित्यितियां परिपक्व हैं, छापामार युद्ध शुरू करना सही है, भले ही अन्य ग्रामीण क्षेत्रों में उसके लिए परिस्थितियां परिपक्व न हों और मज़दूर अपने सामूहिक कार्रवाइयों द्वारा उत्का समर्थन करने के लिए तैयार न हों ?

उत्तर : हां, आप उसे शुरू कर सकते हैं और करना चाहिए. शुरू करना या न करना हमारे ऊपर निर्भर नहीं होता. यह जनता की संगठनात्मक हालत और उसकी मनोदशा पर निर्भर करता है. यदि जनता तैयार है तो आपको उसे शुरू कर देना चाहिए.

प्रश्न : क्या हमें छापामार संघर्ष तभी शुरू करना चाहिए जबकि आंशिक मांगों के लिए किसानों का संघर्ष भूमि के वितरण तथा किसानों की गांव कमेटियों की स्थापना के स्तर पर पहुंच जाए ? या फिर हमें इसको उसी समय शुरू कर देना चाहिए जबकि आंदोलन आंशिक मांगों के लिए, मिसाल के तौर पर लगान की कमी के लिए, संघर्ष के दौर में होता है ?

उत्तर : छापामार संघर्ष की भी मंजिलें होती हैं. उसकी शुरूआत अपेक्षाकृत छोटी मांगों से होती हैं, जैसे कि लगान में कमी की मांग से. लेकिन अभी वह छापामार संघर्ष नहीं होता. यदि शत्रु इन मांगों को मानने से इनकार करता है और किसान उन्हें बलपूर्वक हासिल करने के लिए इच्छुक हैं तो छापामार संघर्ष शुरू हो सकता है. यह सच है कि यह संघर्ष भूमि पर अधिकार करने के लिए नहीं है बल्कि केवल लगान कम कराने के लिए है, फिर भी वह छापामार संघर्ष होगा. इस तरह वह हमारे ऊपर नहीं निर्भर होता. यदि जनता तैयार और इच्छुक है तो हमें उसकी सहायता करनी चाहिए.

प्रश्न : क्या छापामार युद्ध, चाहे वह बिल्कुल प्रारंभिक किस्म का ही हो, ऐसे क्षेत्रों में विकसित किया जा सकता है जहां यातायात के साधन अच्छी तरह विकसित हैं ?

उत्तर : हां, जब शत्रु घेरा डाल दे तो सबसे अच्छी शक्तियों (सेनाओं) को किसी अन्य क्षेत्र में भेज दीजिए. सशस्त्र सेनाओं को इस प्रकार निकालकर बाहर ले जाइए कि वे किसी अन्य क्षेत्र की सशस्त्र सेनाओं से मिल जाएं ताकि आप अपनी मुक्ति सेना पैदा कर सकें.

प्रश्न : छापामार संघर्ष का लक्ष्य आम किसानों की सक्रिय सहायता से शत्रु की सशस्त्र सेनाओं का विनाश करना होना चाहिए. व्यक्तिगत उत्पीड़कों को इस दृष्टि से मारना कि अन्य उत्पीड़क आतंकित हो जाएं और जनता का उत्पीड़न करना
छोड़ दें, आतंकवाद है. लेकिन मेरी समझ में यह नहीं आता कि आतंकवाद के नाम पर प्रत्येक जमींदार, कुख्यात अफ़सर अथवा गुप्तचर के विरुद्ध किसी भी व्यक्तिगत कार्यवाही का, सिद्धांत के रूप में, निषेध कर दिया जाए. मेरी राय में कभी-कभी, छापामार संघर्ष की प्रारंभिक अवस्था में, कुछ बदनाम जालिमों के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत कार्यवाहियां संगठित करना आवश्यक हो जाता है-इसलिए नहीं कि अन्य उत्पीड़कों को आतंकित किया जाए ताकि वह अपना उत्पीड़न छोड़ दें, बल्कि छापामार जत्थों की सुरक्षा की रखवाली के लिए. मैं यह नहीं समझ पाता कि इस प्रकार की कार्यवाहियां जनता को निष्क्रिय कैसे बना देती हैं ? अंतर्राष्ट्रीय साहित्य की जो मेरी समझ है, उसके अनुसार छापामारों ने फ़ासीवाद-विरोधी युद्ध के दौरान अधिकृत देशों में जर्मन तथा जापानी फ़ासिस्टों के विरुद्ध इस प्रकार की कार्रवाइयां की थीं और आज भी उन एशियाई देशों में जहां छापामार युद्ध चल रहा है-मलाया, बर्मा, हिंदचीन आदि में ऐसी कारवाइयां की जा रही हैं. अगर मुझे ठीक-ठीक याद है तो लेनिन ने अपने छापामार युद्ध संबंधी लेख में न सिर्फ़ इस प्रकार के कार्यों पर प्रतिबंध नहीं लगाया था बल्कि उन्होंने मेंशेविकों की सख्त आलोचना की थी जो इन कार्यों को अराजकवाद कहकर इनकी निंदा करते थे. मैं इस प्रश्न पर स्पष्टीकरण चाहता हूं.

उत्तर : इन कामरेड का कथन है-वे यह नहीं समझ पाते कि व्यक्तिगत आतंकवाद जनता की कार्यवाही को कैसे धीमा कर देगा ? व्यक्तिगत आतंकवाद को व्यक्तिगत आतंकवाद इसीलिए कहते हैं क्योंकि उसे व्यक्ति या व्यक्ति समूह जनता के बगैर अंजाम देते हैं. व्यक्तिगत आतंकवाद यह भ्रम पैदा करता है कि प्रमुख बुरी वस्तु शासन-व्यवस्था नहीं है बल्कि व्यक्ति हैं, और यदि कछ विशेष व्यक्तियों को ख़त्म कर दिया जाए तो शासन-व्यवस्था का अंत हो जाएगा. जनता भला क्या नतीजे निकालेगी ? यही कि इस प्रकार के आतंकवाद की सहायता से एक लम्बे संघर्ष के बाद शासनतंत्र को नष्ट करना संभव है. और यदि किसान इस प्रकार के निष्कर्ष निकालते हैं तो वे यही कहेंगे : ‘शासन-व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष चलाना व्यर्थ है. हमारे शानदार, शूरवीर आतंकवादी इस काम को पूरा कर देंगे.’ इस प्रकार की भावना शासनतंत्र के विरुद्ध जनता के आक्रमण को कमजोर कर देती है, इसीलिए वह हानिकारक और खतरनाक है.

व्यक्तिगत आतंकवाद यह विश्वास पैदा करता है कि मुख्य शक्ति शूरवीर आतंकवादियों के पास है, जनता के पास नहीं है. इससे जनता की भूमिका केवल तमाशा देखने और ताली बजाने की हो जाती है. इसका अर्थ है निष्क्रियता पैदा करना. मार्क्स और एंगेल्स ने शिक्षा दी थी कि जनता को अपनी मुक्ति स्वयं हासिल करनी होगी. आपको उससे यही कहना चाहिए. व्यक्तिगत आतंकवाद के परिणाम इससे अलग किस्म के होते हैं. जनता आतंकवादियों को वीरों और मुक्तिदाताओं के रूप में देखती है.

इन कामरेड द्वारा दिया गया, लेनिन का उद्धरण निराधार है. हम उन्हें लेनिन द्वारा व्यक्तिगत आतंकवाद के विरुद्ध लिखे गए लेख दे सकते हैं. आप जानते हैं कि लेनिन ने उस समय मेंशेविकों पर कितना करारा प्रहार किया था जब क्रांति उतार पर थी और वे लोग आतंकवाद का सहारा ले रहे थे. व्यक्तिगत आतंकवाद का सिद्धान्त उस वक्त सामने आता है जबकि क्रांति पीछे हटती है. यह आंदोलन की कमज़ोरी का प्रतिबिंब है. जब कभी क्रांतिकारी आंदोलन उभार पर होता है और जनता स्वयं उठ खड़ी होती है, व्यक्तिगत आतंकवाद का सिद्धांत क्षितिज से विलीन हो जाता है. साथियों को यह बात याद रखनी चाहिए. (पृष्ठ – 393-400)

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