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पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसे हुई ?

पृथ्वी पर जीवन की शुरूआत कैसे हुई ?
प्रारंभिक सौरमंडल

माना जाता है कि आज से लगभग 5 अरब वर्ष पूर्व सौरमंडल में कई गैसों के एक साथ मिल जाने से एक जोरदार धमाका हुआ, जिसके कारण आस-पास चारों ओर धुल के छोटे-छोटे कण बिखर गए और गुरुत्वाकर्षण बल के कारण यह कण पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़ों में बदल गए. लाखों वर्षों के बाद गुरुत्वाकर्षण बल के कारण पत्थर आपस में मिलने लगे, जिससे पृथ्वी का निर्माण हुआ. शुरुआत में धरती का जन्म एक आग के गोले के रूप में हुआ.

वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार 4.5 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी का तापमान लगभग 1200 डिग्री सेल्सियस था, जिस पर जीवन की कल्पना कर पाना भी मुश्किल है. उस समय पर धरती पर केवल चट्टानें, जहरीली गैसें एवं लावा ही हुआ करती थी. पृथ्वी की उत्पत्ति होने के बाद अंतरिक्ष में बचे पत्थरों एवं चट्टानों का धरती पर हमला होने लगा था. लगभग 20 मिलियन सालों तक यह उल्का पृथ्वी पर गिरते रहे जिसके कारण धरती पर पानी इकट्ठा होने लगा. दरअसल, यह उल्का हाइड्रोजन एवं ऑक्सीजन जैसे रासायनिक तत्वों को ग्रहण करते हैं जिससे धीरे-धीरे धरती पर पानी आना आरंभ हुआ.

पृथ्वी की सतह पर पानी इकठ्ठा होने से धरती की सतह ठंडी होने लगी और चट्टानों के कारण सख्त होती चली गयी, परन्तु पृथ्वी के अंदर मौजूद लावा उसी रूप में मौजूद रहा. धीरे-धीरे पृथ्वी का तापमान 70-80 डिग्री सेल्सियस होने लगा और वातावरण में बदलाव आने लगा. चांद के करीब होने के कारण पृथ्वी पर तूफ़ान आने लगा, जिससे पूरी धरती उथल-पुथल हो गयी. समय के साथ-साथ धरती चांद से दूर होती गई और तूफान धीरे-धीरे शांत हो गया. फिर पृथ्वी पर मौजूद चट्टानों से लावा निकलने लगा और छोटे-छोटे द्वीपों का निर्माण हुआ. उल्काओं की बारिश के कारण धरती पर पानी और नमक जीवन की उत्पत्ति करने वाले खनिज पदार्थ भी मौजूद थे.

 

Development of Earth

वैज्ञानिकों का मानना है कि वे खनिज पदार्थों कार्बन एवं अमीनो एसिड नामक दो तत्व थे, जो पृथ्वी पर पाए जाने वाले लगभग हर जीव, जंतु एवं पौधों में पाए जाते हैं. यह खनिज पदार्थ उल्का पिंड के साथ पानी में लगभग 3000 मीटर तक की गहराई में चले जाते थे, जहां सूर्य की किरणें नहीं पहुंच पाती थी. वैज्ञानिकों के अनुसार, लगभग 3.5 अरब वर्ष पूर्व समुद्र की निचली सतह पर मौजूद चट्टानों से पत्ते उगने लगे जिन पर जीवित बैक्टीरिया थे.

यह बैक्टीरिया सूर्य की रोशनी से अपना भोजन बना लेते थे, जिसको प्रकाश संश्लेषण (Photosynthesis) कहा जाता है. समय के साथ-साथ पानी में कार्बन डाइऑक्साइड और ऑक्सीजन का निर्माण होने लगा. धीरे-धीरे सारा सागर ऑक्सीजन से भर गया जिसके कारण ऑक्सीजन धीरे-धीरे वायुमंडल में प्रवेश करने लगा.

पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत लगभग चार अरब वर्ष पूर्व हुई थी. 4 अरब वर्ष पहले समुद्रों के पानी का संघटन आज के समुद्रों के पानी से बिलकुल अलग था. उस समय पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा न के बराबर थी. सबसे पहले वनस्पति से पानी निकलकर धरती पर आयी, जिससे धीरे-धीरे धरती के वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी, इस घटना को महाऑक्सीकरण घटना कहते हैं.धीरे-धीरे पौधों द्वारा वातावरण में ऑक्सीजन की मात्रा में वृद्धि होने लगी.

कई शोधकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों का मानना है कि 4 अरब वर्ष पूर्व पृथ्वी के वातावरण में आकाशीय बिजली की कई सारी घटनाएं होती थी, जिससे वातावरण में नाइट्रोजन के ऑक्साइड पर्याप्त मात्रा में उत्पन्न हुए होंगे और पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई.

पृथ्वी पर जीव की उत्पत्ति

वैज्ञानिकों का मानना है कि एक विशाल उल्कापिंड एवं धूमकेतु के टक्कर से एक ऐसा ढांचा बना, जिससे पृथ्वी पर जीवन की परिस्थितियों का निर्माण हुआ. इस टक्कर के कारण उल्का पिंड एवं धूमकेतु के कुछ तत्व पृथ्वी पर आ गिरे, जिनसे जटिल कार्बनिक अणुओं, ऊर्जा एवं पानी का निर्माण हुआ.

पृथ्वी पर जीवन के कई कारण हैं –

रूसी वैज्ञानिक अलेक्ज़ेंडर ओपारिन मॉडल

1924 में रूसी वैज्ञानिक अलेक्ज़ेंडर ओपारिन ने यह तर्क दिया कि वातावरण में स्थित ऑक्सीजन कार्बनिक अणुओं के संश्लेषण को रोकती हैं और जीवन की उत्पत्ति के लिए कार्बनिक अणुओं का बनना अनिवार्य है. किसी ऑक्सीजन-रहित वातावरण में सूर्य के प्रकाश की क्रिया से कार्बनिक अणुओं का एक ‘आदिम शोरबा’ (प्राइमीवल सूप) बन सकता है. इनसे किसी जटिल विधि से संलयन (फ्यूजन) हो कर नन्ही बूंदें बनी होंगी, जिनकी और अधिक संलयन से वृद्धि हो कर ये विभाजन के द्वारा अपने समान अन्य जीव बना सकती होंगी. लगभग इसी समय अंग्रेज़ वैज्ञानिक जे. बी. एस. हाल्डेन ने भी इसी से मिलता-जुलता सुझाव दिया. उनकी परिकल्पना के अनुसार उस समय पृथ्वी पर स्थित समुद्र आज के समुद्रों की तुलना में बहुत भिन्न रहे होंगे और इनमें एक ‘गरम पतला शोरबा’ बना होगा, जिसमें ऐसे कार्बनिक यौगिक बने होंगे जिनसे जीवन की इकाइयां बनती हैं.

Millar Experimenrt

1953 में स्टेनली मिलर नामक विद्यार्थी ने अपने प्रोफेसर यूरी के साथ मिल कर एक प्रयोग किया, जिसमें उन्होंने मीथेन, अमोनिया और हाइड्रोजन के मिश्रण में अमीनो अम्लों का निर्माण करवाने में सफलता पाई. इससे ओपारिन के सिद्धांत की पुष्टि हुई. आज इस सिद्धांत को लगभग सभी वैज्ञानिकों के द्वारा मान्य किया जाता है. फिर भी, समय-समय पर नए-नए सिद्धांत प्रस्तुत किए जाते हैं. अलबत्ता, कुछ बातों पर आम सहमति है, जैसे –

पृथ्वी पर शुरुआती कार्बनिक अणुओं के निर्माण के पीछे निम्नानुसार तीन प्रकार की शक्तियां काम कर रही होंगी –

  1. अकार्बनिक पदार्थों से कार्बनिक पदार्थों का निर्माण पराबैंगनी किरणों या आसमानी बिजली की चिंगारियों से संभव हुआ होगा.
  2. अंतरिक्ष से आने वाले उल्का पिण्डों के साथ जीवाणुओं का आना.
  3. उल्का पिण्डों के लगातार गिरने से होने वाले धमाकों की ऊर्जा से कार्बनिक पदार्थों का संश्लेषण.

जीवन की उत्पत्ति के बारे में सबसे ताज़ा सिद्धांत अमेरिका की जेट प्रोपल्शन प्रयोगशला से आया है. यहां कार्यरत प्रोफेसर माइकल रसल का तर्क है कि जीवन की शुरुआत समुद्र की गहराइयों में स्थित गरम पानी के फव्वारों में हुई. किस्सा यह है कि 1977 में प्रशांत महासागर में कार्यरत एक तैरती प्रयोगशाला ने पाया कि बहुत गहरे समुद्र के तल में दरारें हैं. इन दरारों में से निकलने वाले पानी का तापमान 4000 डिग्री सेल्सियस होता है. इन दरारों को ऊष्णजलीय दरारें (हाइड्रोथर्मल वेन्ट्स) कहते हैं.

हाइड्रोथर्मल वेन्ट्स

पृथ्वी का तल कई प्लेटों से मिल कर बना है. ये प्लेटें खिसकती और एक-दूसरे से टकराती रहती हैं. जब दो प्लेटें टकराती हैं तब पृथ्वी की सतह हिलती है यानी भूकंप होता है. किंतु समुद्र की गहराइयों में दो प्लेटों के बीच स्थित ऊष्णजलीय दरारों में से रिस कर समुद्र का पानी अंदर जाता है. यहां उसका सामना पृथ्वी की गहराइयों में स्थित पिघली हुई चट्टानों (मैग्मा) से होता है. इनके मिलने से पानी का तापमान 4000 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है किंतु वह उस गहराई में स्थित विशाल दाब के कारण भाप नहीं बन पाता और ऊपर की ओर उठता है.

जब यह बहुत अधिक गरम और क्षारीय पानी बाहर आ कर गहरे समुद्र में स्थित बहुत अधिक ठंडे पानी से मिलता है, तब कई खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और एक के ऊपर एक जमा हो कर मीनार के समान रचना बनाते हैं; समुद्र के पेंदे में इस प्रकार की सैकड़ों फीट ऊंची मीनारें बनी हुई हैं. सन 2000 में अटलांटिक महासागर के पेंदे पर ऐसी मीनारों का एक पूरे शहर के समान जमावड़ा पाया गया. जब इन मीनारों का और अधिक विस्तार से अध्ययन किया गया तब प्रोफेसर रसल को उनके सिद्धांत का आधार मिल गया.

होता यह है कि खनिज पदार्थों की मीनारों में स्पंज के समान छिद्र होते हैं. इन छिद्रों में होने वाली रासायनिक क्रियाओं के कारण ऊर्जा बनने लगती है. प्रोफेसर रसल के अनुसार इन छिद्रों में स्थित अकार्बनिक पदार्थों में इस ऊर्जा के कारण कई प्रकार की रासायनिक क्रियाएं होने लगीं और इनसे पहला जीवित पदार्थ बना. इस जीवित पदार्थ के लिए ऊर्जा का स्रोत छिद्रों में ही उपलब्ध होने के कारण उनमें वृद्धि और प्रजनन होने लगे. आज भी समुद्र के पेंदे पर स्थित गरम पानी की इन मीनारों में ऐसे जीव पाए जाते हैं, जो पृथ्वी की सतह पर और कहीं नहीं मिलते.

सवाल यह उठा कि इस सिद्धांत का प्रमाण कैसे जुटाया जाए ? तब प्रोफेसर रसल और उनकी टीम ने अपनी प्रयोगशाला में एक अनोखा प्रयोग शुरू किया. उनकी प्रयोगशाला में ये शोधकर्ता उस क्षण को दोहराने की कोशिश कर रहे हैं, जो जीवन के शुरू होने से पहले का क्षण था. समुद्र के पानी से भरे कांच के कई बर्तनों के तलों में लगाई गई सिरिंजेस के द्वारा रसायनों का ऐसा मिश्रण छोड़ा जा रहा है, जिसका संघटन लगभग उस क्षारीय द्रव के समान है जो ऊष्णजलीय दरारों से निकलता है. जब ये दोनों द्रव मिलते हैं तब खनिज पदार्थ अवक्षेपित हो जाते हैं और मीनार के समान एक रचना बनाते हैं.

प्रोफेसर रसल को ये मीनारें उनकी परिकल्पना के परीक्षण करने का अवसर दे रही हैं. उनका कहना है कि केवल कार्बनिक अणुओं का बनना जीवन के निर्माण का आधार नहीं हो सकता. इन अणुओं का केवल बनना पर्याप्त नहीं है, उनके लिए ऊर्जा के एक स्रोत की भी आवश्यकता होती है और प्रोफेसर रसल सोचते हैं कि इस प्रकार की ऊर्जा ऊष्णजलीय दरारों पर बनी खनिजों की मीनारों से ही प्राप्त हो सकती है.

अगर यह प्रमाणित हो भी जाए कि प्रोफेसर रसल की परिकल्पना सही है, फिर भी यह संभव है कि जीवन की उत्पत्ति विविध परिस्थितियों में और विविध कारणों से हुई हो. यह भी संभव है कि यहां जिन परिकल्पनाओं का विवरण दिया गया है, उनके अतिरिक्त और भी परिकल्पनाएं भविष्य में प्रस्तुत की जाएं.

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