अंतरिक्ष में हवा नहीं होती है, केवल वैक्यूम यानी निर्वात होता है. निर्वात यानी वैक्यूम में किसी भी तरह का संचार मुश्किल होता है क्योंकि अंतरिक्ष में न तो इंटरनेट के टावर लगाना संभव है और न ही कहीं कोई केबल बिछी है. तो सवाल उठता है कि चांद पर, मंगल ग्रह पर या अंतरिक्ष में मौजूद इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन (International Space Station) में मौजूद वैज्ञानिकों से बातचीत कैसे होती है ?
इसके लिए वे रेडियो तरंगों का इस्तेमाल करते हैं, जिन्हें यात्रा करने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है. इसके पीछे का यह विज्ञान इस समय 150 साल से भी ज्यादा पुराना है. इसका उपयोग लगभग सभी लाइव स्पोर्ट्स टेलीविजन में किया जाता है.
विद्युत चुम्बकीय तरंगें
विद्युत चुम्बकीय तरंगें यांत्रिक तरंगों से इस मायने में भिन्न होती हैं कि उन्हें प्रचार करने के लिए किसी माध्यम की आवश्यकता नहीं होती है. इसका मतलब है कि विद्युत चुम्बकीय तरंगें न केवल हवा और ठोस पदार्थों के माध्यम से, बल्कि अंतरिक्ष के निर्वात के माध्यम से भी यात्रा कर सकती हैं.
1860 और 1870 के दशक में, जेम्स क्लर्क मैक्सवेल नाम के एक स्कॉटिश वैज्ञानिक ने विद्युत चुम्बकीय तरंगों की व्याख्या करने के लिए एक वैज्ञानिक सिद्धांत विकसित किया. उन्होंने देखा कि विद्युत क्षेत्र और चुंबकीय क्षेत्र एक साथ मिलकर विद्युत चुम्बकीय तरंगें बना सकते हैं. उन्होंने बिजली और चुंबकत्व के बीच इस संबंध को संक्षेप में प्रस्तुत किया जिसे अब ‘मैक्सवेल के समीकरण’ के रूप में जाना जाता है.
जर्मन भौतिक विज्ञानी हेनरिक हर्ट्ज़ ने रेडियो तरंगों के उत्पादन और उपयोग के लिए मैक्सवेल के सिद्धांतों को लागू किया. एक रेडियो तरंग की आवृत्ति की इकाई – एक चक्र प्रति सेकंड – को हेनरिक हर्ट्ज़ के सम्मान में हर्ट्ज़ नाम दिया गया है.
रेडियो तरंगों के साथ उनके प्रयोग ने दो समस्याओं का समाधान किया. सबसे पहले, उन्होंने कंक्रीट में प्रदर्शित किया था, जिसे मैक्सवेल ने केवल सिद्धांत दिया था – कि रेडियो तरंगों का वेग प्रकाश के वेग के बराबर है. इससे सिद्ध हुआ कि रेडियो तरंगें प्रकाश का ही एक रूप हैं. दूसरा, हर्ट्ज़ ने पाया कि कैसे विद्युत और चुंबकीय क्षेत्र तारों से खुद को अलग कर लेते हैं और मैक्सवेल की तरंगों – विद्युत चुम्बकीय तरंगों के रूप में मुक्त हो जाते हैं.
इसी विद्युत चुम्बकीय तरंगों माध्यम से स्पेस में बैठे वैज्ञानिक अपने वीडियो पृथ्वी पर भेज देते हैं. अंतरिक्ष में रहे भारतीय वैज्ञानिक राकेश शर्मा (Rakesh Sharma) से पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का वह वीडियो प्रसिद्ध है, जिसमें वह पूछती हैं कि ‘हिन्दुस्तान कैसा दिखता है ?’ और राकेश शर्मा जवाब देते हैं कि ‘सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’.
NASA का स्पेस कम्युनिकेशन ऐंड नैविगेशन (SCaN)
वर्तमान में इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन में हर समय वैज्ञानिक मौजूद रहते हैं. इनसे पृथ्वी पर मौजूद स्पेस एजेंसियां लगातार संपर्क में रहती हैं. इसके अलावा, स्पेस में मौजूद कई सैटलाइट भी ऐसे हैं जो लगातार तस्वीरें भेजते रहते हैं. इन सबके लिए कम्युनिकेशन का कोई न कोई माध्यम तो इस्तेमाल होता ही है. अंतरिक्ष में कम्युनिकेशन आसान नहीं है, फिर भी स्पेस एजेंसियां इस काम को बेहद आसानी से कर डालती हैं.
वैज्ञानिकों का कहना है कि स्पेस में कम्युनिकेशन करना आसान काम नहीं है. अच्छी बात यह है कि स्पेस एजेंसी नासा ने इसमें अब महारत हासिल कर ली है और उसे स्पेस कम्युनिकेशन का अच्छा खासा अनुभव भी है. चांद पर मौजूद रोवर हो, इंटरनेशनल स्पेस स्टेशन हो या आर्टेमिस मिशन, इन सबसे संपर्क के लिए NASA का स्पेस कम्युनिकेशन ऐंड नैविगेशन (SCaN) काम करता है.
स्पेस में स्पेसक्राफ्ट सैकड़ों किलोमीटर प्रति मिनट की रफ्तार से चलते हैं. कोई भी कम्युनिकेशन नेटवर्क, ट्रांसमिटर->नेटवर्क->रिसीवर की मदद से काम करता है. ट्रांसमिटर उस मैसेज को कोड में बदलकर नेटवर्क के ज़रिए भेजता है और रिसीवर उसे रिसीव करके डिकोड कर वैज्ञानिक सुनते हैं. यह बिल्कुल वैसा ही है जैसे आप अपने फोन से बात करते हैं.
आपकी आवाज नेटवर्क के ज़रिए जाता है और सामने वाले को आपकी आवाज हू-ब-हू सुनाई देती है. यह तरीका धरती पर तो सही से काम करता है, क्योंकि आपका मोबाइल और मोबाइल के नेटवर्क आमतौर पर एक ही जगह पर रुके होते हैं. स्पेस में यही चीज दिक्कत देती है. स्पेस में मौजूद एयरक्राफ्ट या स्पेस स्टेशन सैकड़ों किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भागते रहते हैं. ऐसे में उनसे कम्युनिकेट करना आसान नहीं होता.
इस समस्या का हल करने के लिए NASA ने पूरी पृथ्वी के सातों महाद्वीपों में बड़े-बड़े एंटीना लगा रखे हैं. इनकी जगह इतनी बारीकी से से चुनी गई है कि ये स्पेसक्राफ्ट और ग्राउंड स्टेशन के बीच कम्युनिकेशन की मुख्य धुरी के तौर पर काम करते हैं. ये एंटीना लगभग 230 फुट चौड़े होते हैं. इतना बड़ा आकार और हाई फ्रीक्वेंसी के होने की वजह से 200 करोड़ मील तक भी संपर्क किया जा सकता है.
स्पेस स्टेशन से ट्रैकिंग एंड डेटा रिले सैटेलाइट्स (TDRS)
डायरेक्ट-टु-अर्थ सैटलाइट के अलावा नासा के पास कई रिले सैटेलाइट भी हैं. उदाहरण के लिए, स्पेस स्टेशन से ट्रैकिंग एंड डेटा रिले सैटेलाइट्स (TDRS) की मदद से संपर्क किया जाता है. ये सैटेलाइट न्यू मेक्सिको और गुवाम में मौजूद ग्राउंड सैटेलाइट को सिग्नल भेजते हैं. इसके लिए, ये चांद के चारों ओर चक्कर लगाने वाले ऑर्बिटर की भी मदद लेते हैं, जो मैसेज को फॉरवर्ड करते हैं. तीन TDRS पृथ्वी के ऊपर ऐसी कक्षाओं में सेट किए गए हैं कि ये पूरी पृथ्वी को कवर करते हैं. यही वजह है कि इनसे हफ्ते के सातों दिन और 24 घंटे कम्युनिकेशन किया जा सकता है.
लंबी दूरी होने की वजह से बैंडविड्थ भी काफी अहम होती है. ज्यादा बैंडविड्थ का मतलब है प्रति सेकेंड ज्यादा डेटा ट्रांसफर किया जा सकता है. इससे कम्युनिकेशन की रफ्तार बढ़ जाती है. वर्तमान में NASA रेडियो वेव का इस्तेमाल करती है. हालांकि, वह इन्फ्रारेड लेजर का इस्तेमाल करने वाली टेक्नोलॉजी विकसित करने में लगा हुआ है. अगर यह काम कर गई तो कम्युनिकेशन की स्पीड दोगुनी हो जाएगी.
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