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होमोसेपियंस (मानव) के विकास की कहानी

दुनिया भर में इंसानी सभ्यता को लेकर बहस होती रहती है. वैज्ञानिक इस रहस्य को जानने के लिए नए-नए शोध करते रहते हैं. अब इस बीच दक्षिण अफ्रीका में एक ऐसी चीज मिली है जो इंसानी सभ्यता के बारे में सोच को बदल सकती है. दक्षिण अफ्रीका के स्ट्रेकफोनटेन गुफाओं में वैज्ञानिकों ने कुछ जीवाश्म खोजे हैं. अब इसके बाद विशेषज्ञ नए सिरे से सभ्यता के विकास के बारे में सोचने लगे हैं.

एक नए शोध में बताया गया है कि ये जीवाश्म ही इंसानों के विकास के कारण हैं. बताया जा रहा है कि खोजे गए जीवाश्म 30 से 40 लाख साल पुराने हैं. वैज्ञानिकों का मानना है कि यह जीवाश्म मानव विकास के इतिहास की नई कड़ी साबित होंगे. वैज्ञानिकों ने इन जीवाश्म को 32 लाख साल पुरानी लूसी प्रजाति का बताया है, जिसे इंसानों का पूर्वज मानते हैं. इस नए शोध से क्या-क्या पता चला है, उसे इस प्रकार समझते हैं.

इस समय इंसानों की कड़ी में होमो सैपियंस ही ऐसे मानव हैं जो अकेले बचे हुए हैं. पहले किए गए कई शोध में यह कहा गया है कि होमो के पूर्वजों में सबसे पहले मानव शायद ऑस्ट्रेलोपिथेकस जाति के थे. यह जाति 4.1 मिलियन साल से 2.9 मिलियन साल तक जिंदा रही थी.

ऑस्ट्रेलोपिथेकस का मतलब दक्षिणी बंदर. इसमें लूसी प्रजाति भी शामिल है. साल 1974 में इथियोपिया में लूसी की खोज की गई थी जिसकी हड्डियों को दुनिया की सबसे पुरानी हड्डियां माना गया. बताया जाता है कि यह प्रचीन इंसान का सबसे पूराना और पूरा कंकाल था. इनमें इंसान शामिल थे और यह प्रजाति जानवरों की तुलना में इंसान के बेहद करीब थी.

माना जाता है कि दक्षिण अफ्रीका की इन गुफाओं को इंसान की उत्पत्ति का स्थान माना जाता है. इन गुफाओं में ऑस्ट्रेलोपिथेकस जीवाश्म की जानकारी मिली है. साल 1936 में एक व्यस्क ऑस्ट्रेलोपिथेकस की खोज हुई थी, तब यह मशहूर हुई थी. कई दशकों बाद इन गुफाओं में एक बार फिर वैज्ञानिकों ने जीवाश्म खोजा था. इनको ऑस्ट्रेलोपिथेकस प्रजाति का बताया गया था.

वैज्ञानिकों ने बताया था कि पाए गए जीवाश्म 2.1 मिलियन से 2.6 मिलियन साल के समय के हैं. उनका कहना है कि ये अधिक पुराने नहीं हैं. वैज्ञानिक अक्सर कहते हैं कि पूर्वी अफ्रीका की ऑस्ट्रेलोपिथेकस प्रजाति में शामिल लूसी प्रजाति सबसे पुरानी है.

ऐसे में हमारे पास हमारे एकमात्र बचे पूर्वज होमोसेपियंस के विकास की कहानी ही बचती है, जो आज गुफाओं से निकल कर ब्रह्माण्ड की खोज में निकल पड़ा है. होमोसेपियंस के विकास की महागाथा हम अशफ़ाक़ अहमद के इस आलेख के साथ समझते हैं.

होमोसेपियंस अकेली प्रजाति क्यों है ?

पिछले कई हजार सालों से हम अकेली अपनी प्रजाति को देखने के इतने आदी हो गये हैं कि हमारे लिये यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि पृथ्वी पर कभी मनुष्यों की और भी प्रजातियां रहा करती थी लेकिन पूर्वी अफ्रीका से होमो सेपियंस नामी जिस प्रजाति का उभार हुआ, उसने अफ्रीका से निकल कर पूरे वैश्विक पटल पर अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया और बाकी प्रजातियों का वजूद ही मिट गया.

तब से हम अकेली प्रजाति हैं और बड़े आराम से शुरुआती मानवों के रूप में मनु शतरूपा, आदम हव्वा टाईप कल्पना को गढ़ लेते हैं और आंख बंद कर के उन पर यकीन कर लेते हैं— लेकिन सोचिये कि अगर वे विलुप्त हुई प्रजातियां भी सर्वाइव कर जातीं तो इन कहानियों का क्या होता ?

फिर इन आदिम जोड़ियों की पहचान क्या होती ? किस हिसाब से मरने के बाद वाली कहानियां गढ़ी जातीं और पुनर्जन्म की अवधारणा फिर इन प्रजातीय सीमाओं में बंधी होती या आत्मा सेपियंस से निकल कर डेनिसोवा और उससे निकल कर नियेंडरथल्स की भी सैर कर रही होती और सभी प्रजातियां क्या एक जैसे ईश्वरीय कांसेप्ट पर यकीन कर रही होतीं ?

सबसे लम्बी पारी खेलने वाले होमोइरेक्टस

बहरहाल अगर हम मानव विकास यात्रा को ठीक से समझें तो होमो इरेक्टस ने अतीत में सबसे लंबी पारी खेली है और इसका रिकार्ड तोड़ना हमारे यानि वर्तमान प्रजाति के बस की भी बात नहीं. होमो सेपियंस डेढ़ लाख साल पहले से सफर शुरु करते हैं और सत्तर हजार साल पहले वे अफ्रीका से निकल कर धीरे-धीरे विश्व भर में फैल जाते हैं.

और शुरुआती संघर्षों को छोड़ दें तो जब से कृषि क्रांति हुई और यह प्रजाति संगठित समाजों के रूप में परिपक्व होनी शुरू हुई तब से अब तक बहुत छोटे अरसे में ही हमने इतनी तरक्की कर ली है कि अगले बस एक हजार साल में ही हम दो तरह के परिणामों की संभावना पर सिमट कर रह गये हैं कि या तो हम अपने प्लेनेट को छोड़ कर अंतरिक्ष में विचरने वाली स्पिसीज बन के रह जायेंगे या यहीं लड़ भिड़ कर, अकाल, भयंकर रूप से असंतुलित होती पृथ्वी की प्रतिक्रियात्मक आपदाओं या किसी तरह के ग्लोबल संक्रमण का शिकार हो कर खत्म हो जायेंगे.

और हमारी पृथ्वी पर कुल यात्रा दो लाख साल भी न रह पायेगी जबकि होमो इरेक्टस ने बीस लाख साल लंबी पारी खेली है. हम ठीक-ठीक नहीं जानते कि होमो सेपियंस के रूप में वर्गीकृत की जाने वाली प्रजाति कब, कहां और कैसे विकसित हुई लेकिन ज्यादातर वैज्ञानिकों की राय है कि पूर्वी अफ्रीका के कई हिस्सों में डेढ़ लाख साल पहले वे सेपियंस के रूप में पहचाने वाले वह लोग वजूद में आ चुके थे जो दिखने में लगभग हमारे ही जैसे थे.

ऐसे में जहन में यह सवाल उठना लाजमी है कि अगर हम सेपियंस का उदभव वहां से ही मानें तो डेढ़ लाख साल में हम कहां से कहां पहुंच गये तो आखिर होमो इरेक्टस बीस लाख साल तक वजूद में रहने के बावजूद कैसे कोई भी तरक्की न कर पाये— और लाखों साल के सफर में वे अपनी शुरुआती अवस्था में ही कायम रहे और एक दिन लुप्त हो गये ? आखिर क्या फर्क रहा उनके और हमारे बीच ?

इसका कोई क्लियर जवाब किसी के पास नहीं— बस सब कुछ अनुमानों पर ही आधारित है. हां अगर हम इसे समझना चाहें तो यूं समझ सकते हैं कि मनुष्यों की सभी प्रजातियां किसी कपि से इवॉल्व (डार्विन की इवॉल्यूशन थ्योरी) हुई थीं लेकिन उनमें वे गुण हमेशा बने रहे और वे गुण आज भी सारे जीवों में (मनुष्यों को छोड़ कर) विद्यमान हैं कि उनका सारा जीवन तीन बिंदुओं के इर्द गिर्द ही चलता है— भोजन, खतरा और प्रजनन.

होमोसेपियंस कैसे सर्वाइव किया ?

भाषा मानव विकास यात्रा में बहुत बाद की चीज है— पर कम्यूनिकेशन के तय संकेत शुरुआती दौर से हैं और सभी जीवों में पाये जाते हैं. सभी बड़े जीवों के बीच कम्यूनिकेशन इन्हीं तीन बिंदुओं पर आधारित होता है. मनुष्यों की शुरुआती प्रजातियां भी इससे मुक्त नहीं थी. थोड़े क्रूर शब्दों में कहा जाये तो वे जानवरों से इवाल्व हुए थे और जानवरों जैसा ही जीवन जीते थे.

छोटे-छोटे समूह होते थे (बिना भाषा और परस्पर सहयोग के लिये साझा मिथकों के अभाव में बड़े समूह नहीं बन सकते) और कोई मुस्तकिल ठिकाना नहीं. भोजन की तलाश में मारे-मारे फिरना और अपनी सारी ऊर्जा इस खोज में खपा देना. इनमें कोई आज के जैसी वर्जनायें नहीं होती थीं— यानि एकल पति पत्नी सम्बंध जैसी. कोई किसी के साथ भी सो सकता था और बच्चों की कोई पैतृक पहचान निश्चित नहीं होती थी— वे समूह की साझा सम्पत्ति होते थे.

उन्होंने अपनी पूरी यात्रा इन्हीं तीन बिंदुओं पर सीमित रह कर की और उस दौर की सभी प्रजातियों (बाद के होमो सेपियंस समेत) ने इसी नियम का पालन किया और उन्हें आज की तारीख में हम भोजन खोजी या भोजन संग्रह कर्ता के रूप में परिभाषित करते हैं. कोई भी उपजाऊ घाटी या क्षेत्र पांच सौ के लगभग आदिम मनुष्यों का पेट पाल सकती थी तो उसी हिसाब से उस क्षेत्र में समूहबद्ध रहते थे और सदस्यों की संख्या बढ़ जाने पर वे अलग गुट में बंट जाते थे. यह सब लाखों साल यूं ही चलता रहा और वैसी कोई तरक्की उन प्रजातियों ने नहीं की— जिसकी हम कल्पना कर सकते हैं या जिसे हमने देखा है.

फिर आखिर ऐसा क्या हुआ कि होमो सेपियंस ने पूरी दुनिया पर वर्चस्व स्थापित कर लिया— बाकी प्रजातियों को खत्म कर दिया और एक तरह से देखा जाये तो सिर्फ दस हजार सालों में इतनी तूफानी गति से तरक्की कर डाली कि पृथ्वी तो पृथ्वी, इंसान अब अंतरिक्ष में विचरते दूसरे ग्रहों पर भी बसने के बारे में सोचने लगा है ?

भाषा का विकास

इस बात को समझने के लिये एक धारणा यह दी जाती है कि सत्तर हजार साल और तीस हजार साल पूर्व के पीरियड में सोचने और कम्युनिकेट करने के तरीकों के अविर्भाव को, जिसे हम संज्ञानात्मक क्रांति या काग्नीटिव रिवॉल्यूशन के नाम से जानते हैं— किसी चीज ने जन्म दिया जिसके बारे में हम पक्का कुछ नहीं जानते लेकिन एक मान्य सिद्धांत यह है कि किसी आकस्मिक जेनेटिक म्यूटेशंस ने सेपियंस के दिमाग की अंदरूनी वायरिंग को बदल दिया और उन्हें अलग ढंग से सोचने, समझने और भाषा का इस्तेमाल करते हुए कम्युनिनेट करने में सक्षम बना दिया. अब यह म्यूटेशन सेपियंस के बजाय नियेंडरथल्स के दिमाग में क्यों नहीं हुआ जो सेपियंस से साईज में बड़ा दिमाग रखते थे— इस बारे में वैज्ञानिकों के पास कोई क्लियर मत नहीं है.

होमो इरेक्टस और होमो सेपियंस के बीच तीस हजार साल पहले हुई भाषा क्रांति और बारह हजार साल पहले हुई कृषि क्रांति ही वह प्रमुख अंतर थे जिन्होंने उनके मुकाबले हमें इतने कम वक्त में यहां ला खड़ा किया और इस तेज विकास यात्रा का सबसे भयानक पहलू यह भी है कि मात्र पांच सौ साल पहले हुई वैज्ञानिक क्रांति ने न सिर्फ हमारे विकास को असीमित गति दी है बल्कि बहुत तेजी से यही क्रांति हमें अपने या प्लेनेट के अंत की तरफ भी ले जा रही है.

होमो सेपियंस की कामयाबी

संज्ञानात्मक क्रांति को अगर हम किनारे भी कर दें तो यह तो निश्चित था कि सेपियंस दक्ष लड़ाके और रणनीतिकार थे, तभी वे पृथ्वी के अलग-अलग हिस्सों में बसने वाली सभी प्रजातियों पर अपना वर्चस्व कायम करने में कामयाब रहे थे.

होमो इरेक्टस बीस लाख साल के सफर के दौरान जो न कर पाये— वह सेपियंस ने तीस हजार साल पहले कर लिया – यानि भाषा का विकास. अपनी बात कहने या दूसरों के बारे में बात करने के लिये उन्होंने बहुत से ध्वनि संकेत विकसित कर लिये और वे उस पोजीशन में पहुंच गये जहां वे कुछ साझा मिथक गढ़ के परस्पर सहयोग की एक नीवं डाल सकते थे. यहीं से छोटी-छोटी मत मान्यताओं, आत्माओं, देवताओं जैसी मिथकीय श्रंखला की शुरुआत हुई.

यह छोटे-छोटे समूहों के समाज बनने के लिये कितना जरूरी तत्व था— इसे कुछ उदाहरणों से समझ सकते हैं. जैसा कि हम जानते हैं कि एक साधारण जीव बुद्धि भोजन, प्रजनन और खतरे के तीन बिंदुओं पर ही सक्रिय रहती है और उनके आपसी संकेत या भाषा बस यहीं तक सीमित रहती है. प्रजनन सम्बंधी संकेतों को अगर छोड़ दें, जो दो विपरीत लिंगी जीवों तक सीमित हो सकते हैं तो भी समूह के बाकी सदस्यों के बीच ज्यादातर कम्यूनिकेशन खतरे और भोजन को ले कर ही होते हैं. यानी, वे अपने समूह के सदस्य को यह बता सकते हैं कि वहां खाना है या सावधान, उधर खतरा है— पर यह कम्यूनिकेशन बहुत नाकाफी है.

कम्युनिकेशन का महत्त्व

कल्पना कीजिये कि एक शेर के इलाके में दूसरा शेर आ जाये— तो वह भाषा के अभाव में उसे अपना प्रतिद्वंद्वी ही समझेगा और सोचेगा कि वह भी उसके खाने वाले इलाके में हिस्सेदारी करने आया है और दोनों में हिंसक झड़प हो जायेगी, जिसमें कोई एक मारा भी जा सकता है— जबकि हो सकता है कि दूसरा शेर बस घूमते हुए बिना किसी मकसद के ही उधर आ निकला हो, लेकिन भाषा के अभाव में यह बताने में वह सक्षम नहीं था.

अब इसी फ्रेम को उल्टा कीजिये और मान लीजिये कि शेरों ने कम्यूनिकेशन के लिये पूरी भाषा सीख ली है और कई साझा मिथक गढ़ लिये हैं— इंसानी एतबार से यह मिथक धर्म हो सकता है, राज्य/देश हो सकता है या कोई मल्टी नेशनल कंपनी हो सकती है. तो पहला शेर दूसरे शेर से परिचय पूछता है और वह खुद को उसी धर्म, या राज्य या कंपनी से सम्बंधित बताता है, जिससे पहला शेर खुद भी सम्बंधित हो तो दोनों के बीच अजनबी होते हुए भी एक आत्मीयता पैदा हो जाती है क्योंकि दोनों एक साझा मिथक से जुड़े हुए हैं. और तब हो सकता है कि पहला शेर दूसरे शेर को दावत दे और दोनों सहभागी की तरह शिकार पर निकल लें.

जाहिर है कि जानवर ऐसा नहीं कर सकते, मनुष्यों की बाकी प्रजातियां भी नहीं कर पायीं लेकिन सेपियंस ने यह कमाल कर दिखाया। भाषा ही गॉसिप का आधार बनी… लोग भोजन, प्रजनन और खतरे से इतर समूह के दूसरे लोगों के बारे में बात कर सकते थे। कौन भरोसे के काबिल है कौन नहीं, यह तय कर सकते थे और यह परस्पर गपबाजी और सहयोग छोटे समूहों को बड़े समूहों में बदल सकता था.

लेकिन एक सामाजिक अनुसंधान के मुताबिक गपशप में बंधे समूह का आकार बस डेढ़ सौ लोगों तक सीमित होता है— यानि ज्यादातर लोग डेढ़ सौ से ज्यादा लोगों से न तो आत्मीय ढंग से परिचित हो सकते हैं और न ही उनके बारे में गपशप कर सकते हैं तो फिर बड़े समूह कैसे बनें ? इसके लिये उन मिथकों की जरूरत महसूस हुई जिनके सहारे दो नितांत अजनबी लोगों के बीच भी परस्पर सहयोग की भावना विकसित हो सके और यूं उन्होंने अतीत में धर्म, मत-मान्यताओं, प्रकृति की अबूझ शक्तियों में आस्था के रूप में उन मिथकों का गढ़न किया जो भविष्य में राज्य/देश या मल्टीनेशनल कंपनी के रूप में विस्तारित हुए.

बड़े समूहों का जुड़ाव कैसे हुआ ?

कल्पना कीजिये कि आप लखनऊ में रहते हैं, घूमने के लिये चेन्नई जाते हैं जहां एकदम अजनबी शख्स से आपकी मुलाकात होती है, आप उसे नोटिस नहीं करते— लेकिन जैसे ही बातों में जाहिर होता है कि वह भी आपकी तरह ही मुसलमान है तो आपमें तत्काल एक आत्मीयता बन जाती है, यहां आप दोनों के बीच मिथक के रूप में ‘धर्म’ साझा हो रहा है. या आप कंपनी के किसी काम से लंदन जाते हैं और वहां आपको कोई अजनबी आपके जैसा ही मिलता है जिससे बात करते ही आप जान जाते हैं कि वह भी आपकी तरह ही भारतीय है तो फौरन उस नितांत अजनबी से भी आपका आत्मीयता का सम्बंध हो जायेगा— यहां आपके बीच साझा होने वाला मिथक ‘राष्ट्र’ है.

या आप हनीमून पे मसूरी जाते हैं जहां आपके बगल में ही ठहरा एक जोड़ा जो आपके लिये नितांत अजनबी है और आम हालात में आप उससे ‘हाय-हैलो’ से आगे जाना पसंद न करते, लेकिन जैसे ही आपको पता चलता है कि वह बंदा भी आपकी ही तरह ‘टाटा’ कंपनी का एम्पलाई है— फौरन ही आपका उससे परिचय स्थापित हो जाता है और अब आप दोस्तों की तरह ढेर-सी बातें कर सकते हैं. यहां आप दोनों के बीच साझा हो सकने वाला मिथक ‘कंपनी’ है.

तो इस भाषाई कामयाबी ने जहां हम सेपियंस के बड़े समूहों को नियंत्रित किया वहीं इन साझा मिथकों ने आगे आने वाली दुनिया में अजनबियों के बीच भी समन्वय की एक बुनियाद खड़ी की. आज इंटरनेट के प्रसार ने पूरी दुनिया को एक ग्लोबल विलेज में बदल दिया है और हमारी दूसरों के प्रति समझ को इतना विकसित कर दिया है कि हम दुनिया के किसी भी कोने में रहने वाले नितांत अजनबी शख्स से बिना डरे बात कर सकते हैं— उससे दोस्ती कर सकते हैं लेकिन हमेशा से ही ऐसा नहीं था.

अजनबियों के बीच परस्पर सहयोग के लिये जिन बड़े मिथकों ने बड़ी भूमिका निभाई वे निश्चित ही धर्म और राष्ट्र थे. बिना किसी जान पहचान के भी मक्का में हज के लिये, या वेटिकन में या कुंभ में लाखों लोग एक साथ जुट सकते हैं— ठीक इसी तरह एक राष्ट्र सौ करोड़ से ऊपर अजनबियों को भी एक कर सकता है.

एक मल्टीनेशनल कंपनी भी इस सिलसिले की प्रमुख कड़ी है— जहां हजारों, लाखों लोग भी बिना एक दूसरे को जाने मिलजुल कर परस्पर सहयोग से काम करते हैं. तो सेपियंस के रूप में हमारे सर्वाइवल की दिशा में पहली कामयाबी भाषा ही थी— वह भाषा जिसने हमें उन मिथकों को गढ़ने का मौका दिया, जो संसार के दो छोर पर रहने वाले दो अजनबियों को भी एक कर सके.

जबकि होमो इरेक्टस की अपने पूरे सफर के दौरान उस शेर जैसी स्थिति बनी रही जो अपने इलाके में दिखे दूसरे शेर के बारे में यह नहीं जान सकता था कि वह उसके इलाके में खाना ढूंढने आया है या बस ऐसे ही घूमता हुआ आ निकला है. वह बस उसे अपना प्रतिद्वंद्वी घुसपैठिया समझता है और उसे अपने इलाके से खदेड़ने के लिये अपनी जान की परवाह न करते हुए भी उस पर झपट पड़ता है.

संभवतः यही कम्युनिकेशन आधारित खूबी सेपियंस के बड़े समूह तैयार करने में मददगार साबित हुई और वे और ज्यादा ताकतवर हो कर दूसरी प्रजातियों का दमन करने में कामयाब रहे, जो छोटे-छोटे समूहों में बंटी हुई थीं और इस तरह हम अकेली जीवित प्रजाति बचे.

आग का इस्तेमाल

इंसान के शिखर पर पहुंचने की एक महत्वपूर्ण सीढ़ी आग का इस्तेमाल और उसे घरेलू बनाना था— लेकिन इसका श्रेय सेपियंस को नहीं दिया जा सकता. आठ लाख साल पहले कभी कभार आग का इस्तेमाल हुआ हो सकता है लेकिन तीन लाख साल पहले तक होमो इरेक्टस, नियेंडरथल और सेपियंस के पूर्वज इसका नियमित इस्तेमाल करने लगे थे.

इससे न सिर्फ उन्होंने अब रोशनी, ठंडे इलाकों में गर्माहट का साधन और शिकारी जानवरों से बचने के लिये एक घातक हथियार हासिल किया था बल्कि अब इसके इस्तेमाल से वे गेंहूं, चावल और आलू जैसी जिन वस्तुओं को उनके कुदरती रूप में वे पचा नहीं पाते थे, वे पकाये जाने के बाद मनुष्यों के भोजन का मुख्य आधार बन गयीं और म्यूटेशन्स के बाद सेपियंस ने इसी महारथ के चलते बारह हजार साल पहले खेती की नींव डाली.

इससे पहले भाषाई दक्षता ने उन्हें बड़े समूहों में ढाला था और जहां-तहां उगी मिलने वाले जंगली घास के रूप में यह चीजें उन्हें हासिल जरूर थीं लेकिन बारह हजार साल पहले उन्होंने इसे खुद उगाना शुरू किया और दस हजार साल पूर्व तक वे उस स्थिति में पहुंच गये, जहां उन्होंने बाकायदा खेती को नियंत्रित करना सीख लिया और उपजाऊ जमीनों के गिर्द डेरा डालने लगे.

कृषि क्रांति का जन्म

इससे पहले वे भटकने वाले समूह हुआ करते थे लेकिन धीरे-धीरे कृषि क्रांति ने पूरी दुनिया में उनके कदमों को थामना शुरू कर दिया और इतिहास में पहली बार वे स्थाई बस्तियों के रूप में आबाद होना शुरू हुए. यह क्रांति बिना किसी ग्लोबल कम्यूनिकेशन के अमेरिका से ले कर चीन तक घटित हुई थी और दस हजार साल और साढ़े तीन हजार ईसा पूर्व के बीच के समय में बाकायदा कृषि के रूप में वह सब कुछ उगाया गया जो हम आज देखते हैं. एक तरह से हम कह सकते हैं कि जहां पहले लोगों के भोजन लगातार बदले थे, वहीं दो तीन हजार साल साल से हमारा भोजन लगातार वही है जो हमारे शिकारी, भोजन संग्रहकर्ता और कृषक पूर्वजों का हुआ करता था.

कृषि क्रांति से पूर्व जब सेपियंस शिकारी या भोजन संग्रहकर्ताओं के रूप में भटकते थे तब समूहों में पुरुषों और स्त्रियों की भूमिका बराबरी की हुआ करती थी और वे समूह अपने नियमों के इतने पक्के हुआ करते थे कि समूह में बीमार, बूढ़ों और अतिरिक्त बच्चों की हत्या तक कर देते थे कि उनके कदम न थमने पायें लेकिन जब उन्होंने स्थाई बस्तियों के रूप में बसना शुरू किया, तब उनके जीने के तरीके बदल गये और जहां खेती ने जहां पुरुषों को घर के बाहर की सारी जिम्मेदारियों की ओर धकेला, वहीं स्त्रियों की भूमिका भी एक हद तक सीमित कर दी.

जबकि पहले उसकी भूमिका लगभग बराबर की रहती थी और वे मिल कर शिकार करते थे या भोजन इकट्ठा करते थे. जिन मिथकों ने उन्हें बड़े-बड़े समूहों में ढाला था उनमें एक प्रमुख भूमिका उन समूहों में मौजूद ओझाओं की होती थी और यह ओझा स्त्री पुरुष कोई भी हो सकते थे. जबकि बाद के दौर में ज्यादातर समाज उस पुरुष वर्चस्ववादी ढांचे में ढलते गये जहां हर प्रमुख भूमिका पुरुष की ही होती थी.

होमोसेपियंस के स्थायी ठिकानें

जीवन के इस नये ढर्रे ने जहां भविष्य में उनकी अगली पीढ़ियों के लिये तरक्की की राहें खोलीं वहीं इसके बहुत से साईड इफेक्ट भी हुए. पहले के भोजन संग्रहकर्ता और शिकारी समूहों के मुकाबले कृषक समूह बहुत ज्यादा मेहनत करते थे और कम संतोषजनक जीवन जीते थे. खेती जी तोड़ मेहनत मांगती थी, जिसकी वजह से वे स्थायी बस्तियां बसाने पे मजबूर हुए— जिसके कई साइड इफेक्ट भी सामने आये. किसी आपदा का शिकार हो कर फसल नष्ट हो जाने से वे अकाल का भी शिकार होते थे और स्थायी रूप से एक जगह बसने पर कोई संक्रामक रोग भी उन्हें अपनी चपेट में ले लेता था.

इसके सिवा जब स्थाई बस्तियां बसीं तो एक व्यवस्था परक तंत्र भी खड़ा हुआ और इसने व्यापारी, पुरोहित और शासक के रूप में ऐसे अभिजात्य वर्गों का गठन किया जो खेतों में हाड़ तोड़ मेहनत करने वाले किसान के मुकाबले या तो नाम की मेहनत करते थे या शून्य. जहां कृषि क्रांति से पहले शिकारी या भोजन संग्रहकर्ता समूहों में सभी मिल जुल कर काम करते थे और लगभग सभी बराबरी की हैसियत रखते थे, वहीं इस नई व्यवस्था ने उन्हें अलग-वर्गों में बांट दिया. एक वह वर्ग जो शासन करता था और ऐशपरस्त जीवन बसर करता था— दूसरा वह जो व्यापार करता था और बहुत थोड़ी मेहनत के बदले बहुत ज्यादा पाता था और एक वह जो बहुत ज्यादा मेहनत करता था और बहुत थोड़ा पाता था.

बहरहाल कृषि क्रांति ने सेपियंस को स्थाई तौर पर बसना सिखाया और नये ढले समाजों ने अलग-अलग व्यवस्थाओं को जनम दिया. इस प्रगति में करीब साढ़े तीन हजार ईसा पूर्व पहिये के इस्तेमाल ने और गति प्रदान की. पहिये का विकास तब हुआ जब इंसान एक पेचीदा समाज विकसित कर चुका था— जिसमें आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक प्रणालियां मौजूद थीं, कई जानवरों को पालतू बनाया जा चुका था और पीछे कई सदियों से खेती की जा रही थी— जबकि इस बीच हम सिलने वाली सुइयां, कपड़े, टोकरियां, बांसुरियां और नाव वगैरह बनाना पहले ही सीख चुके थे.

इस देरी की वजह कुछ भी रही हो सकती हो लेकिन इसके आविष्कार के बाद भी कई सदियों तक इसके इस्तेमाल से सिर्फ बर्तन बनाये जाते रहे और बाद में इन्हें चक्कों के रूप में ढाला गया, जब पत्थरों को ढुलका कर भारी निर्माण कार्य शुरू किये गये और आगे चल कर इसे उन पहियों के रूप में ढाला गया, जहां वे किसी रथ या बैलगाड़ी जैसे वाहन के मुख्य पार्ट के रूप में इस्तेमाल हो सकें और इससे निश्चित ही हमारे विकास को और तेज गति मिली.

आस्था के रूप में सबसे बड़े मिथक का प्रयोग

लोगों के परस्पर सहयोग और बड़े झुंडों के निर्माण के लिये गढ़े गये मिथकों में राज्य/राष्ट्र या कंपनी, सिविलाइजेशन के उन्नत हो चुकने के बाद अस्तित्व में आई चीजें हैं लेकिन धर्म वह शुरुआती चीज है जिसने अजनबी लोगों को एक करने में बड़ी भूमिका निभाई— धर्म आस्थाओं का विस्तृत रूप है जो बाद में स्थापित हुआ लेकिन आस्थायें उस दौर से ही वजूद में आ गयी थीं, जब सेपियंस शिकारी या भोजन संग्रहकर्ता के रूप में भटका करते थे.

सबसे पुरानी सभ्यता में जो अगली पीढ़ियों तक पहुंचने वाला सबसे चर्चित मिथक था, वह एडम ईव और एक ईश्वर वाला था— सबसे शुरुआती चरण में इस मिथक को एडम और लिलिथ के साथ गढ़ा गया था, जहां लिलिथ के कैरेक्टर का गढ़न बताता था कि वह किसी ऐसे स्त्री ओझा या समूह की उपज थी जिसके आसपास स्त्री सत्तात्मक समाज था. एक किवदंती के अनुसार लिलिथ एडम की खुद पर डोमिनेंस को नहीं स्वीकारती थी और सहवास में भी टॉप पोजीशन पर रहना पसंद करती थी (यहां वात्सायन के कामसूत्र मत तलाशिये, प्रतीकात्मक रूप से इसे फीमेल डॉमिनेंट सत्ता का प्रतीक समझिये), जो उसे गढ़ने वाले समूह की सोच को दर्शाता था.

ईश्वर का पुरुषवादी गढ़न

लेकिन बाद के पुरुष वर्चस्ववादी सुमेरियन और अकेडियन समाजों ने उस मिथक को जूं का तूं न स्वीकार करके लिलिथ के साथ दूसरी बातों को जोड़ दिया कि वह बुराई की प्रतीक थी, ईश्वर के आदेश पर बच्चे पैदा करने को राजी नहीं थी और न उसे एडम की श्रेष्ठता स्वीकार थी इसलिये वह स्वर्ग से पृथ्वी पर भाग आई थी और तब उस तथाकथित ईश्वर ने एडम की पसली से ईव को गढ़ा. यहां भी पसली से गढ़ने में लाजिक न तलाशिये, यह भी प्रतीकात्मक था— यह दर्शाने के लिये कि आदमी ही ‘मुख्य’ है और औरत मर्द के लिये बनी है.

आपको कहीं यह लिखा नहीं मिलेगा कि ईव की जरूरत इसलिये थी कि दोनों मिल कर प्रजनन कर सकें. प्रजनन के लिये औरत की जरूरत उस शक्तिमान ईश्वर को क्यों पड़ेगी भला, जिसने इसी दुनिया में कई द्विलिंगी जीव बना रखे हैं, जो नर मादा दोनों की भूमिका निभा लेते हैं— आदम भी ऐसा हो सकता था, लेकिन मिथक गढ़ने वाले इस बात से परिचित थे कि प्रजनन के लिये औरत जरूरी थी इसलिये ईव को गढ़ना जरूरी था. लेकिन इस गढ़न में भी उन्होंने अपनी सोच समाहित कर रखी थी कि औरत ‘मर्द से और मर्द के मनोरंजन के लिये’ ही बनी है.

और इसीलिये जब इन मिथकों को ओल्ड टेस्टामेंट की किताबों में लिखने की नौबत आई तो उन्होंने लिलिथ को सिरे से गायब कर दिया और पहले मर्द और पहली औरत के रूप में ईव को गढ़ा. आज आदम हव्वा को जानने और मानने वालों में शायद तीन चौथाई लोगों ने लिलिथ का नाम भी न सुना होगा, जो मूल कांसेप्ट के हिसाब से दुनिया की पहली औरत थी. यहां उस तथाकथित ईश्वर को रचने वालों की मानसिकता का अंदाजा आप इससे भी लगा सकते हैं कि कहीं भी उस ईश्वर का कोई लैंगिक खाका नहीं खींचा गया लेकिन हर संबोधन में वह आपको ‘करता’ या ‘हिज’ के रूप में पुरुषवाचक ही मिलेगा.

ईव बनाम पेन्डोरा

इस पुरुष वर्चस्ववादी ढांचे को समझने के लिये उसी दौर की एक यूनानी कथा को भी लिया जा सकता है कि यूनानी परंपरा के अनुसार संसार की पहली नारी पैंडोरा की रचना देवताओं के रजा ज्यूस ने उस नर को दण्डित करने के लिये की थी जिसने प्रोमेथ्युस द्वारा चोरी की गयी पवित्र अग्नि की भेंट को ले लिया था. उसने देवताओं के कलाकार हिफेस्ट्स को आदेश दिया कि मिटटी और पानी को मिला कर एक ऐसी नारी की रचना करे जिसकी आवाज़ तो नर जैसी हो लेकिन सुन्दरता और सौम्यता में वह अमर देवी जैसी हो.

उसने एथिना (देवी) को आदेश दिया कि उसे अच्छे से अच्छा क्लिष्ठ्तम कपड़ा बुनने की कला का प्रशिक्षण दिया जाये— सुनहरे एफिडाईट को आदेश दिया कि उसके सर को सुन्दरता और लावण्यता के साथ दुखद इच्छाओं और चिंताओं से ऐसा अलंकृत कर दे, जो उसके अंगों को शिथिल कर दे— अपने संदेशवाहक हर्मीज़ को आदेश दिया कि वह इस नारी को कुत्ते जैसी बुद्धि और धोखेबाजी भरे आचरण से सज्जित करे. ज्यूस के आदेश का पालन करने के लिये देवताओं ने उसे बोलने का बहका देने वाला ढंग दिया और जब इस नारी की रचना पूरी हुई, तब इसका नाम पैंडोरा रखा गया, क्योंकि सभी देवताओं ने उसे एक न एक ऐसा उपहार दिया था जो नर के लिये अनिष्टता का प्रतीक हो.

ज्यूस के इस आकर्षक उपहार को एपेमैथ्युस को गिफ्ट दिया गया जिसके भाई प्रोमैथ्यूस ने उसे चेतावनी दे रखी थी कि वह देवताओं से कोई उपहार न ले, लेकिन पैंडोरा की सुन्दरता के आगे एपेमैथ्युस इस प्रलोभन से इनकार न कर सका और उसने पैंडोरा को ले लिया.

प्रोमैथ्युस ने एक रहस्यमयी संदूक एपेमैथ्युस के पास इस आदेश के साथ रख छोड़ा था कि किसी भी परिस्थिति में उसे खोला न जाये. लेकिन जब पैंडोरा ने उसे देखा तो वह अपनी जिज्ञासा का निवारण का कर सकी और उसने संदूक खोल दिया— जिससे दस हज़ार बुराइयां एकदम से उस संदूक से निकल पड़ीं और समस्त मानवजाति को सताने लगी. समयानुसार संदूक का ढक्कन बंद हो जाने से केवल आशा ही रह गयी जो संदूक से न निकल सकी. यानी, पैंडोरा ने एपेमैथ्युस की बात मान ली होती तो संसार में बुराइयों का जन्म ही न होता.

इस तरह इस कहानी से यह सिद्ध होता है कि नर निर्दोष है और नारी दोषी है— नारी के यौनाकर्षण का ही परिणाम था कि एपेमैथ्युस गुमराह हो गया था, जबकि उसके भाई ने उसे सख्त चेतावनी दे रखी थी कि वह ऐसा न करे— और चूंकि एपेमैथ्युस ने चेतावनी पर अमल किया लेकिन पैंडोरा ने ध्यान नहीं दिया इसलिये नर, नारी की तुलना में संकल्प, बुद्धिमता और सामान्य चरित्र में श्रेष्ठ है जबकि नारी अनिष्ट, दुःख और ग़लतफ़हमी का मुख्य स्रोत है.

धर्मों का विस्तार

शुरुआती सभ्यतायें एकल भूमंडलीकरण से अछूती थीं और ईसा से दस हजार साल पूर्व में दुनिया भर में हजारों आस्थायें पल रही थीं, जो कि वर्तमान में विश्व की आबादियों के एक दूसरे से जुड़ने पर वे सिमटती गयीं. इसकी शुरुआत ईसाइयत के साथ हुई और इस्लाम और बौद्धिज्म ने इसमें वैश्विक भागीदारी निभाई. शुरुआती सभ्यतायें बहुदेववादी थीं और उनके लिये एक साथ कई देवता पूज्यनीय हो सकते थे. एकेश्वरवाद इसी धारा के बीच से पनपा था जब किसी देवता के उपासक उसे ही सर्वश्रेष्ठ घोषित कर के उस के पीछे लामबंद हो गये.

दुनिया का पहला इस तरह का ज्ञात एकेश्वरवादी धर्म ईसा से 350 वर्ष पूर्व प्रकट हुआ जब मिस्र के एक फैरो आख्तानेन ने मिस्र के देवतामंडल समूह के एक देवता ऑटिन को सृष्टि का सर्वशक्तिमान नियन्ता घोषित किया और इसे राजकीय धर्म बना कर दूसरे किसी भी देवता की उपासना पर रोक लगा दी. लेकिन यह क्रांति असफल रही और उसकी मौत के बाद यह विचारधारा त्याग दी गयी.

शुरुआती सिविलाइजेशन में बहुदेववाद का ही बोलबाला रहा— जिसकी उत्पत्ति ग्रीक भाषा से हुई. यह विचारधारा समूचे क्षेत्रों को एक दूसरे से जोड़ती थी, समेटती थी लेकिन इसी धारा ने एकेश्वरवादी आस्थाओं को भी लगातार जन्म दिया. गास्पल के प्रचार प्रसार ने इस बुनियादी विचारधारा को सीमित जरूर किया, जिसे आगे इस्लाम ने जबरदस्त चोट पहुंचाई.

बहुदेववाद ने एकेश्वरवाद के अतिरिक्त द्वैतवादी आस्थाओं को भी जन्म दिया. द्वैतवादी दो परस्पर विरोधी सत्ताओं को स्वीकृति देते हैं— शुभ और अशुभ. एकेश्वरवाद से भिन्न द्वैतवाद यह मानता है कि अशुभ एक स्वतंत्र सत्ता है जिसको शुभ शक्ति ईश्वर ने न तो रचा है और न ही वह ईश्वर के आधीन है. द्वैतवाद कहता है कि समूची सृष्टि इन दोनों परस्पर विरोधी शक्तियों का संघर्ष क्षेत्र है.

द्वैतवाद और एकेश्वरवाद

द्वैतवाद और एकेश्वरवाद दोनों कुछ प्वाइंट पर धराशायी हो जाते हैं तो कुछ सवालों के जवाब भी देते हैं कि मसलन दुनिया में कुछ भी अशुभ क्यों है ? दुःख, तकलीफें, गरीबी, भुखमरी जैसी समस्यायें क्यों हैं ? इसका जवाब द्वैतवाद देता है अपने मूल सिद्धांत में लेकिन फिर वह अनुशासन के मुद्दे पर फंस जाता है कि शुभ अशुभ के बीच सतत चलने वाले संघर्षों के नियम कौन तय करता है ? अब इसका जवाब एकेश्वरवाद देता है लेकिन इसी तरह के कुछ और प्वाइंट्स पर वह निरुत्तर हो जाता है.

द्वैतवाद ने ही 1500 ईसापूर्व और 1000 ईसापूर्व के बीच मध्य एशिया में जरथुष्ट्रवाद को जन्म दिया था, जो जोरोआस्टर नाम के एक पैगम्बर से चला था और पीढ़ी दर पीढ़ी फैलते हुए 530 ईसा पूर्व एक महत्वपूर्ण मजहब बन गया था और बाद में 651 तक सासानी साम्राज्य का अधिकृत मजहब था. इसने मध्य पूर्व और मध्य एशियाई मजहबों पर बहुत गहरा असर डाला— वैदिक धर्म की जड़ें भी आपको इसी में मिलेंगी.

हालांकि बाद में इस्लाम के प्रसार ने इसे निगल लिया लेकिन एक अजब चीज यह देखिये कि एकेश्वरवादी यहूदी, इसाई और मुस्लिम भी द्वैतवादी सिद्धांत में यकीन रखते हैं. यानि ‘अशुभ’ के तौर पर वे ‘डेविल’ या ‘शैतान’ की स्वतंत्र सत्ता को स्वीकारते हैं जो हर बुरा काम स्वतंत्र रूप से कर सकती है और ईश्वर की मर्जी या इजाजत के बगैर बड़ी से बड़ी तबाही मचा सकती है. यह बात और है कि वे यह कह कर खुद को बहला लेते हैं कि ईश्वर ने शैतान को यह छूट दे रखी है.

तर्कतः यह चीज नामुमकिन सी लगती है कि एक ईश्वर में यकीन रखने वाले लोग कैसे दो परस्पर विरोधी शक्तियों में यकीन कर लेते हैं, जिनका एक दूसरे पे जोर नहीं चलता और दोनों ही यह साबित करते हैं कि उन दोनों में कोई भी सर्वशक्तिमान नहीं है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से एकेश्वरवादी यहूदी, इसाई और मुस्लिम ऐसा ही करते हैं इस लचर तर्क के सहारे कि ईश्वर ने ही उस ‘अशुभ’ शक्ति को छूट दे रखी है.

अनीश्वरवादी धर्मों का अविर्भाव

हालांकि ईसा के आगे पीछे एफ्रो एशिया में कुछ नये किस्म के मजहबों का प्रचार-प्रसार भी शुरू हुआ था, जो मूलतः उन देवतामयी अवधारणाओं से मुक्त थे जिनसे पीछे की सभ्यतायें परिचित रही थी— मसलन भारत में बौद्ध धर्म और जैन धर्म, चीन में टाओइज्म और कन्फ्यूशसवाद, भूमध्यसागरीय इलाके में स्टोइसिज्म, एपीक्यूरियनिज्म, सिनिसिज्म …, इनमें देवताओं की अवहेलना थी और यह अनीश्वरवादी आस्थायें थी.

इन धर्ममतों का मानना था कि सृष्टि का नियमन करने वाली अतिमानवीय व्यवस्था किसी दैवीय शक्ति या सनक की नहीं बल्कि प्राकृतिक नियमों की उपज है— इनमें से कुछ ने देवताओं में यकीन तो रखा लेकिन वे सर्वशक्तिमान नहीं थे, बल्कि कुदरत के नियमों के उतने ही आधीन थे जितने खुद मनुष्य या प्रकृति से जुड़े सभी जीव और वनस्पति थे.

सेपियंस की शुरुआती छोटी-छोटी आस्थायें इसी तरह पहले बहुदेववाद के रूप में विस्तारित हुईं— फिर बड़े पैमाने पर उस एकेश्वरवादी सिद्धांत के रूप में हावी हुईं जो अपने आप में द्वैतवाद को समाहित किये था और साथ ही मध्य एशिया में बहुदेववाद के रूप में कायम भी रहीं तो मध्य और पूर्वी एशिया में अनीश्वरवादी आस्थाओं के रूप में भी विकसित हुईं.

होमोसेपियंस का सामाजिक गठन

जब आबादियों ने स्थाई ठिकाने बसाने शुरू किये तो उनके जीवन के साथ रहन सहन में भी बड़ा बदलाव आया. सभी एक साथ खेती नहीं कर सकते थे, और भी दूसरे कामों की जरूरत थी. मसलन कोई कपड़े बनाने वाला हो, तो कोई जूते चप्पल बनाने वाला, तो कोई मजदूर, कोई बढ़ई हो, तो कोई वैद्य. दूसरे सभी एक टाईम में एक ही चीज नहीं उगा सकते थे. कोई कुछ उगा रहा था, तो कोई कुछ, तो कोई बागबानी कर रहा था. ऐसे में विनिमय जरूरी था, ताकि सभी का काम चलता रहे.

यानी, किसी के पास सेब हैं तो वह कुछ सेब दे कर जूते हासिल कर सकता था, या गेंहूं चावल हासिल कर सकता था. एक वैद्य किसी को यह सोच के औषधि दे सकता था कि वह उससे अगले दिन कोई मजदूरी करा लेगा लेकिन इस तरह का विनिमय किसी अर्थव्यवस्था के लिये बेहद पेचीदा व्यवस्था है क्योंकि इसमें विनमय जरूरत पर आधारित होता था तो चुकाई जाने वाली कीमत हर बार नये सिरे से तय करनी पड़ सकती थी. इसे एक माॅडल के तौर पर यूँ समझते हैं कि अगर बाजार में सौ अलग-अलग वस्तुओं का लेन-देन होता है तो खरीददार और विक्रेता को लगभग पांच हजार तक विनिमय दरों को जानना जरूरी होता है और वस्तुएं और ज्यादा होंगी तो उसी अनुपात में यह दरें बढ़ जायेंगी.

उदाहरणार्थ आप मोची से जूते लेते हैं लेकिन आपके पास देने के लिये सेब हैं जो उसे नहीं चाहिये, उसे बाल कटवाने हैं तो आप एक बाजार में एक नाई ढूंढते हैं जो आपके सेब ले कर उस मोची के बाल काट देगा, लेकिन अगर उस नाई के पास भी पहले से ही सेब हों तो ? इन्हीं दिक्कतों से निपटने के लिये एक केन्द्रीय विनिमय व्यवस्था की जरूरत थी, यानि कुछ ऐसा जिसकी वैल्यू हर स्थिति में समान रहे और उसे एक तरह की गारंटी के तौर पर इस्तेमाल करते हुए आप किसी भी तरह का विनिमय कर सकें, तब पैसे की अवधारणा स्थापित हुई.

पैसे का इस्तेमाल

पैसे की रचना अनेक बार और अनेक जगहों पर हुई. सिक्का या नोट ही पैसा नहीं है. पैसा वह कोई भी वस्तु है, जिसका इस्तेमाल लोग अन्य वस्तुओं या सेवाओं के मूल्य के व्यवस्थित निरूपण के लिये कर सकें. इसकी वैल्यू स्थिर रहती थी और एक्सचेंज के लिये कोई दिमाग नहीं खपाना पड़ता था. पैसे में सबसे जाना पहचाना सिक्का यानि मुद्रित धातु का मानकीकृत टुकड़ा है लेकिन उसकी ईजाद से काफी पहले से ‘पैसा’ वजूद में रहा है. शुरुआती सभ्यतायें कौड़ियों, गाय बैलों, चमड़ा, नमक, अनाज, मनकों, कपड़ा और इकरारी रुक्को को ‘मुद्रा’ की तरह इस्तेमाल करते हुए फलती फूलती रहीं.

समूचे अफ्रीका, एशिया और समुद्री महाद्वीपों में 4000 साल तक पैसे के रूप में कौड़ियों का इस्तेमाल होता रहा. अंग्रेजी राज के दौरान युगांडा में बीसवीं सदी के शुरुआती वर्षों तक कौड़ियों के रूप मे करों का भुगतान होता रहा है. आधुनिक जेलों और युद्धबंदी शिविरों में पैसे के रूप में सिगरेटों का भुगतान होता रहा है. धूम्रपान न करने वाले कैदी भी सिगरेटों को भुगतान के रूप में स्वीकारने और दूसरी वस्तुओं/सुविधाओं का मूल्य सिगरेट से आंकने में तैयार होते रहे हैं. विनिमय के लिये ‘पैसा’ आज भी एक सार्वभौमिक माध्यम है. ‘पैसा’ हालांकि कोई भौतिक वास्तविकता नहीं है, इसकी वैल्यू हमारी साझा कल्पना में होता है पर यह विनिमय का सबसे कामयाब माध्यम है.

3000 ईसा पूर्व सुमेरियाई लोगों ने पैसे के रूप में ‘जौ’ का प्रयोग किया था यानि जौ पैसा, जो सीधे-सीधे जौ ही था, जिसे एक सिला के तौर पर बनाया जाता था जो मोटे तौर पर एक लीटर के बराबर होता था. तनखाहें भी जौ की सिलास के रूप में दी जाती थी. एक पुरुष मजदूर महीने में साठ सिला और स्त्री मजदूर तीस सिला कमाती थी. इन्हें खाया भी जा सकता था और बची हुई सिला का उपयोग दूसरी वस्तुएं खरीदने में किया जा सकता था, लेकिन इसके साथ कई समस्यायें थीं. इसे सहेज कर रखना, संग्रह करना, परिवहन करना मुश्किल काम था.

चांदी के सिक्के

तब ईसा पूर्व तीसरी सहस्राब्दी के मध्य में प्राचीन मेसोपीटामिया में ‘पैसा’ शेकल के रूप में सामने आया जो कि सिक्का नहीं बल्कि 8.33 ग्राम चांदी होती थी, जिसका इस्तेमाल न कृषि में हो सकता था, न युद्ध में, न खाने में लेकिन इसे संग्रह करना या परिवहन करना आसान था.

इतिहास के पहले सिक्के 640 ईसा पूर्व पश्चिम अनातोलिया में लीडिया के राजा अलियाटीस द्वारा ईजाद किये गये थे. इन सिक्कों का सोने या चांदी का एक मानक वजन हुआ करता था और इन पर एक पहचान चिन्ह अंकित होता था. यह चिन्ह एक तरह की घोषणा होता था कि यह राज्य व्यवस्था द्वारा निर्धारित मूल्य है और इसकी नकल मतलब राज्य से विद्रोह, जिसकी सजा मौत तक हो सकती थी.

चूंकि लोग राजा की सत्ता और सत्यनिष्ठा पर भरोसा करते थे इसलिये नितांत अजनबी लोग भी सबसे प्रचलित रोमन सिक्के डिनायरिस पर सहज भरोसा कर लेते थे. सम्राट की सत्ता भी डिनायरिस पर टिकी थी. सोचिये कि डिनायरिस की जगह जौ की सिला होती तो ? दूर दराज तक फैली सत्ता में करों के रूप में जौ वसूलते, उसे ढो कर रोम लाते और फिर वेतन के रूप में उसे फिर ढो कर अपने सैनिकों और कर्मचारियों तक ले जाते !

रोम के सिक्कों का क्रेज इतना जबरदस्त था कि डाॅलर की तरह ही साम्राज्य से बाहर भी इसकी समान स्वीकृति थी और यह रोम से हजारों किलोमीटर दूर भारत में भी पहली शताब्दी में लेन-देन का स्वीकृत माध्यम थे. डिनायरिस में भारतीयों का भरोसा ऐसा था कि बाद में जब उन्होंने खुद के सिक्के ढाले तो वे रोमन सम्राट की तस्वीर समेत दीनार की करीबी नकल हुआ करते थे. मुस्लिम खलीफाओं ने भी इसका अरबीकरण करते हुए ‘दीनार’ जारी किये. जार्डन, इराक, सर्बिया, मैसेडोनिया, ट्यूनिशिया समेत कई देशों में आज भी ‘दीनार’ अधिकृत मुद्रा है.

जिस वक्त लीडियाई शैली के सिक्के भूमध्यसागर से ले कर हिंद महासागर तक फैल रहे थे, उसी वक्त चीन ने एक हल्की अलग मुद्रा प्रणाली विकसित की जो कांसे के सिक्के और सोने, चांदी की बेनिशान सिल्लियों पर आधारित थी. इन दोनों मुद्रा प्रणालियों में पर्याप्त समानता थी कि चीनी और लीडियाई क्षेत्र के बीच घनिष्ठ मौद्रिक और वाणिज्यिक सम्बंध विकसित हो गये थे और आगे मुसलमानों, योरोपीय व्यापारियों और विजेताओं ने लीडियाई प्रणाली सोने चांदी की मुद्रा को सुदूर कोनों तक पहुंचाया.

आधुनिक युग के परवर्ती दौर तक आते आते सारी दुनिया एक एकल मौद्रिक क्षेत्र में बदल चुकी थी जो पहले तो सोने और चांदी में भरोसा करती रही और उसके बाद ब्रिटिश पाउंड और अमेरिकी डाॅलर जैसी कुछ विश्वसनीय मुद्राओं पर.

होमोसेपियंस का आर्थिकीकरण

समाज तीन मुख्य व्यवस्थाओं पर पलते रहे हैं – धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक. सेपियंस ने जब दरबदरी छोड़ स्थाई बस्तियां बसानी शुरू की थी तो उन्हें परस्पर सहयोग के लिये धार्मिक व्यवस्था की जरूरत पड़ी थी. और जब एक स्थाई बसावट के साथ छोटे-छोटे समाजों का खाका खिंचा तो इसके बेहतर संचालन के लिये आर्थिक व्यवस्था की आवश्यकता महसूस हुई. और जब वे इन दोनों व्यवस्थाओं को अपना चुके तब सामूहिक रूप से बड़े समाजों के संचालन के लिये राजनीतिक व्यवस्था की जरूरत महसूस हुई.

छोटे समाजों ने राजकीय व्यवस्था को आकार दिया और इन व्यवस्थाओं को मिलाकर साम्राज्य बना. साम्राज्य एक राजनैतिक व्यवस्था है, जिसका मतलब ही ऐसे अनेकों समाज पर स्वीकार्य शासन है, जिनकी अलग पहचान, संस्कृति और स्वतंत्र अधिकार क्षेत्र होता है. लेकिन इस व्यवस्था के साइड इफेक्ट कालांतर में उन हजारों छोटी-छोटी संस्कृतियों के लिये खतरनाक साबित हुई जो बड़े साम्राज्यों द्वारा लील ली गयी. पिछले ढाई हजार साल से दुनिया का हर नागरिक किसी न किसी साम्राज्य के ही आधीन रहा है.

रोमन साम्राज्य ने नूमान्तियाई, अवेर्नियाई, हेल्विशियाई, सामनाईट, ल्युसेंटियाई, उम्ब्रियाई, इस्ट्राकेनियन जैसे सैकड़ों समाजों को लील लिया जिनके लोग स्वंय को उन समाजों के नागरिकों के रूप में पहचानते रहे थे, अपनी भाषा बोलते थे, अपने देवताओं की पूजा करते थे, उनकी लोककथायें-किवदंतियां सुनाया करते थे. उनके वंशज रोमनों के आधीन रह कर उनकी तरह सोचने, बोलने और उपासनायें करने लगे थे. यही काम सातवीं सदी से दसवीं सदी के बीच इस्लामिक साम्राज्य ने किया था जिसने समूचे खाड़ी क्षेत्र की संस्कृतियों को लील लिया था.

पहली संहिता की उत्पत्ति

अब साम्राज्य बनने शुरू हुए तो उस व्यवस्था की भी जरूरत महसूस हुई, जिसे हम कानूनी नियमावली के रूप में जानते हैं. यानी, एक राजकीय व्यवस्था द्वारा अपराधों का निर्धारण और उस अनुपात में दिया जाने वाला दंड. इस तरह की जो पहली संहिता इतिहास में दर्ज हुई उसे हम कोड ऑफ हम्मूराबी के रूप में जानते हैं, जो 1776 ईसा पूर्व बेबीलोन में अस्तित्व में आई थी.

बेबीलोन मेसोपोटामिया का सबसे बड़ा नगर और उस वक्त का सबसे बड़ा साम्राज्य था, जो मेसोपोटामिया के ज्यादातर हिस्सों, आज के ईराक, सीरिया और ईरान के कुछ हिस्सों तक फैला था. हम्मूराबी एक राजा के रूप में अमर ही उस विधि संहिता की वजह से हुआ.

बहुत से मुसलमान आपको यह कहते हुए मिल जायेंगे कि शरा के रूप में उन्होंने किसी समाज में विधि व्यवस्था शुरू की थी लेकिन यह सच नहीं. शरा कोड ऑफ हम्मूराबी का ही परिष्कृत रूप था, जिसे बाद के यहूदी और इसाई समाजों ने भी उसी तरह कुछ परिवर्तनों के साथ अपनाया हुआ था. हालांकि योरप और पश्चिमी एशिया के उन समाजों से हजारों किलोमीटर दूर भारत में भी मनुस्मृति के रूप में विधि संहिता मौजूद थी लेकिन चूंकि उसका कोई काल निर्धारित नहीं है तो विश्व पटल पर उसे इस तरह का क्रेडिट नहीं दिया जाता, लेकिन इतना तो तय है कि यह भी शरा से पहले की ही है.

बहरहाल, अब अगर हम साम्राज्यों पर फोकस करें तो इस तरह का पहला साम्राज्य 2250 ईसा पूर्व सारगोन द ग्रेट का अक्कादियाई साम्राज्य था, जो मेसोपोटामिया के किश नाम के नगर से शुरू हुआ था. सारगोन न सिर्फ मेसोपोटामियाई नगर/राज्यों को जीतने में कामयाब रहा था, बल्कि उसकी सत्ता का विस्तार भूमध्यसागर से ले कर फारस की खाड़ी तक रहा था और वह इतिहास का पहला ऐसा शासक था जो यह दावा करता था कि उसने सारी दुनिया को जीत लिया है.

साम्राज्यों की उत्पत्ति

सारगौन ने साम्राज्यवाद की ऐसी अवधारणा स्थापित की, कि अगले 1700 सालों तक असीरियाई, बेबीलोनियाई और हिटाईट राजा सारगोन के एक रोल माॅडल के रूप में अपनाते रहे और वह भी विश्व विजेता होने का दावा करते रहे. इस परंपरा को 550 ईसा पूर्व सायरस द ग्रेट ने और भी प्रभावशाली ढंग से आगे बढ़ाया और साम्राज्यवाद का यह गुरूमंत्र दिया कि ‘हम आपको आपके हित के लिये जीत रहे हैं.’

सारी दुनिया के बाशिन्दों की खातिर सारी दुनिया पर हुकूमत करने का ख्याल चौंकाने वाला था लेकिन सायरस के समय से ही यह साम्राज्यवादी धारा और भी समावेशी और व्यापक होती गयी. बाद में अलेक्जेंडर द ग्रेट, हेलेनिस्टियाई राजाओं, रोमन सम्राटों, मुस्लिम खलीफाओं, हिंदुस्तानी राजवंशों से होती सोवियत प्रधानों और अमेरिकी राष्ट्रपतियों तक पहुंची. इनके साथ ही इससे इतर वे साम्राज्य भी लंबे समय तक रहे जो लोकतांत्रिक या कम से कम गणतांत्रिक थे, मसलन अंग्रेजी साम्राज्य जो इतिहास का सबसे बड़ा साम्राज्य था, या डच, फ्रांसीसी, बेल्जियाई और पूर्व के अमेरिकी साम्राज्यों के साथ ही नोवगोराड, रोम, कार्थेज, एथेंस के पूर्व आधुनिक साम्राज्य.

सायरस की तर्ज की साम्राज्यवादी विचारधारा अपने फारसी माॅडल से अलग स्वतंत्र रूप से मध्य अमेरिका, एडियाई और चीन में भी विकसित हुई. चीन के पारम्पारिक राजनैतिक सिद्धांत के मुताबिक स्वर्ग पृथ्वी की सारी वैध सत्ताओं का स्रोत है, स्वर्ग की सत्ता शासन के लिये सबसे योग्य व्यक्ति या परिवार को चुनती है और उन्हें स्वर्ग का शासनादेश प्रदान करती है. संयुक्त चीनी साम्राज्य के पहले सम्राट चिंग शी हुआंग्दी का दावा था कि विश्व की छहों दिशाओं में मौजूद हर चीज सम्राट की है.

साम्राज्यों ने जहां बहुत सी छोटी और बड़ी संस्कृतियों का एकीकरण किया, वहीं अपनी संस्कृति थोपने की प्रक्रिया भी जारी रखी. इसे खुद अपने देश और खुद पर अप्लाई करके समझ सकते हैं. आज का भारत साम्राज्यवादी ब्रिटेन की संतान है, जहां अंग्रेजों ने इस उपमहाद्वीप के निवासियों पर हर तरह के जुल्म किये, हत्यायें की लेकिन उन्होंने आपस में लड़ते रजवाड़ों, रियासतों को भी एक किया और इतनी जनजातीय विविधता के बावजूद एक साझा राजनैतिक चेतना को खड़ा करने में अहम भूमिका निभाई.

उन्होंने न्यायप्रणाली की नींव रखी, प्रशासनिक ढांचे की रचना की, आर्थिक एकीकरण के संदर्भ में निर्णायक महत्व रखने वाले रेलमार्गों का जाल खड़ा किया. आजाद होने के बाद भारत ने भी पश्चिमी लोकतंत्र के ब्रिटिश माॅडल को ही अपनाया, अंग्रेजी आज भी पूरे उपमहाद्वीप की अकेली संपर्क भाषा है. अंग्रेजों के दिये क्रिकेट और चाय का हर भारतीय दिवाना है. कितने ऐसे भारतीय होंगे जो अपनी खुद की संस्कृति के नाम पर अंग्रेजी साम्राज्य की थोपी गयी इन विरासतों को ठुकरा सकें ? क्या हम अब इन्हें या विदेशी कहे जाने वाले मुस्लिम बादशाहों की छोड़ी विरासतों को अपनी ही संस्कृति के रूप में स्वीकार नहीं कर चुके ?

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