भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति एम. आर. शाह ने पिछले दिनों कहा कि पिछले महीने उनको हिमाचल प्रदेश में छुट्टी के दौरान सीने में तकलीफ हुई थी और उनको ऐसा लगता है कि यह ईश्वर का संकेत था कि अभी हिमालय मत आओ. तात्पर्य यह कि भारत के 130 करोड़ लोगों की जिस संस्थान पर आस्था है उसके एक न्यायधीश ईश्वर की सत्ता को स्थापित करते हैं. वही दूसरी ओर विश्व के महानतम वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग कहते हैं कि मुझे ईश्वर से डर नहीं लगता क्योंकि वह है ही नहीं, लेकिन ईश्वर को मानने वालों से डर लगता है.
इन दो विपरीत सोच के दो लोग जो बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह जानना महत्वपूर्ण हो जाता है कि ईश्वर का अस्तित्व है या नहीं ? अगर है तो कितना, नहीं तो क्यों नहीं ? इस महत्वपूर्ण सवाल पर विस्तार से अध्ययन करना जरूरी है, वह भी तब जब दुनिया में ऐसे लोगों की भारी तादाद हो और वे अपनी अपनी मान्यताओं के लिए अपनी जान तक दांव पर लगा दिये हों. इसे हम अशफ़ाक़ अहमद के इस आलेख के साथ समझते हैं.
अगर ईश्वर है तो विज्ञान के नज़रिये से कैसा हो सकता है ?
इस सृष्टि को चलाने वाले किसी ईश्वर के होने न होने पर हमने काफी चर्चा की है— चलिये धार्मिकों के नज़रिये से इस संभावना पर भी विचार करते हैं कि क्या वह वाकई है ? और अगर है तो कहां हो सकता है और कैसा हो सकता है ?
इसे समझने के लिये थोड़ा डीप में जाना पड़ेगा— आप सीधे किसी आस्तिक वाले कांसेप्ट को पकड़ कर ईश्वर को नहीं समझ सकते. वे तो हर सवाल का दरवाजा बस ‘मान लो’ पर बंद किये बैठे हैं— अपनी बात को प्रमाणित करने के लिये उनके पास कोई तर्क नहीं होता. यह सही है कि कोई ईश्वर है या नहीं, यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता लेकिन अगर विज्ञान की तरह कोई थ्योरी ऐसी सामने रखी जाये जो थोड़ी व्यवहारिक हो, तो एक संभावना तो बनती ही है.
आस्तिक और नास्तिक के बीच ईश्वर के अस्तित्व के बाद दूसरा जो विवाद है वह बिग बैंग थ्योरी है. किसी आस्तिक के हिसाब से यह ब्रह्मांड खुदा की इच्छा पर वजूद में आया है और ‘कुन फयाकुन’ के अंदाज में आया है जबकि विज्ञान के हिसाब से ब्रह्मांड का निर्माण बिग बैंग के जरिये हुआ है.
बिगबैंग क्या सचमुच हुआ था ?
यानी करीब चौदह अरब वर्ष पहले सबकुछ एक बिंदू के रूप में बंद था, जिसमें विस्फोट हुआ और स्पेस, टाईम और मैटर के रूप में यह यूनिवर्स अस्तित्व में आया. अब जिस वक्त की यह घटना है, उस वक्त तो न कोई इंसान मौजूद था और न उस वक्त का कोई रिकार्ड उपलब्ध है— फिर यह चुटकुले जैसा सच आखिर किस आधार पर एक थ्योरी मान लिया जाता है ?
इस थ्योरी के कई प्वाइंट्स ऐसे हैं जो बस कल्पना भर हैं लेकिन कई प्वाइंट्स ऐसे हैं जो प्रैक्टिकल में सच साबित हुए हैं— जिनमें सबसे महत्वपूर्ण प्वांट यह है कि एक समय यह ब्रह्मांड बेहद छोटा और गर्म था, जो बाद में धीरे-धीरे फैलता गया. इसे साबित करने के लिये एस्ट्रोनॉमिकल ऑब्जर्वेशन, कंप्यूटर सिमूलेशन और लार्ज हेड्रान कोलाइडर एक्सपेरिमेंट का सहारा लिया गया है. इसके सिवा कास्मिक माइक्रोवैव बैकग्राउंड के रूप में इसके सबूत पूरे ब्रह्मांड में जगह-जगह मौजूद हैं.
निर्माण के शुरुआती तीन लाख साल तक यह इतना गर्म था कि इलेक्ट्रान्स और प्रोटान्स मिल कर एक एटम तक नहीं बना पा रहे थे. उस समय यह सारा मैटर हाईली आयोनाइज्ड प्लाज्मा के रूप में मौजूद था. इस प्लाज्मा से यूं तो लाईट उस वक्त भी निकल रही थी लेकिन न्यूट्रल एटम की मौजूदगी के कारण फ्री इलेक्ट्रान लाईट को रीडायरेक्ट कर दे रहे थे— जिसके कारण वह ज्यादा दूर तक यात्रा नहीं कर सकती थी. धीरे-धीरे ब्रह्मांड फैलता गया और इसका तापमान और घनत्व घटता गया. फिर वह समय भी आया जब एटम अस्तित्व में आया. चूंकि न्यूट्रल एटम बनाने के बाद लाईट को रीडायरेक्ट करने के लिये कोई फ्री इलेक्ट्रान्स नहीं बचे थे तो पहली बार यह ब्रह्मांड ट्रांसपैरेंट बना.
एटम बनने से पहले तक जो लाईट गर्म प्लाज्मा से निकलने के कारण ब्रह्मांड के हर कोने में एक साथ इन्फ्रारेड रेडियेशन के रूप में मौजूद थी— अब वह इस ब्रह्मांड में हमेशा ट्रेवल करने के लिये स्वतंत्र हो गयी. यह लाईट एक प्रमाण के तौर पर आज भी ब्रह्मांड में हर जगह मौजूद है. पिछले साढ़े तेरह अरब साल में ब्रह्मांड के फैलने के कारण इस लाईट का वैवलेंथ भी फैलता रहा, जिसके कारण अब यह इन्फ्रारेड रेडियेशन तो नहीं रहा— पर इलेक्ट्रो मैग्नेटिक स्पेक्ट्रम के माइक्रोवेव रीजन में इसे आज भी ब्रह्मांड में हर जगह डिटेक्ट किया जा सकता है, जिसे हम कास्मिक माइक्रोवैव बैकग्राउंड के रूप में जानते हैं.
थ्योरेटिकल ब्लैक बॉडी कर्व से मिलान
इसे जांचने के लिये एक थ्योरेटिकल ब्लैक बॉडी कर्व बनाया गया था जो बिग बैंग थ्योरी पर आधारित था, फिर कास्मिक माइक्रोवैव बैकग्राउंड से मिले डेटा से बनाये गये थर्मल स्पेक्ट्रम से इसका मिलान किया गया तो दोनों ग्राफ लगभग समान साबित हुए. और इस ग्राफ से जब ब्रह्मांड का तापमान निकाला गया तो वह 2.73 कैल्विन आया और जब वाकई में आज के ब्रह्मांड के तापमान की जांच की गयी तो 2.725 कैल्विन आया जो कि लगभग प्रिडिक्टेड तापमान के आसपास ही था— यहां भी बिग बैंग थ्योरी सही साबित होती है.
ब्रह्मांड में कुछ भी देखने का जरिया वे फोटॉन्स हैं जो ट्रैवल कर रहे हैं और असल में हम उनके जरिये अतीत को देखते हैं. यानी, अगर हम एक हजार प्रकाशवर्ष दूर के किसी तारे को देख रहे हैं तो वह इमेज दरअसल एक हजार साल पुरानी है, जो प्रकाश के माध्यम से हम तक पहुंची है— इसी तर्ज पर ब्रह्मांड में हम ब्रह्मांड के अतीत को देख सकते हैं.
शुरुआती गर्म दौर के बाद जब ब्रह्मांड ठंडा होना शुरू हुआ और हाइड्रोजन एटम्स बनने शुरु हुए, गर्म प्लाज्मा गैस में तब्दील हुआ तो उस समय में केवल गैस के बादल ही मौजूद थे. बिग बैंग थ्योरी के अनुसार अगर हम ब्रह्मांड के अतीत में देखते हैं तो हमें यह गैस क्लाउड्स दिखने चाहिये और मज़े की बात यह कि आधुनिक टेलिस्कोप की मदद से जब बारह से तेरह अरब साल पहले के ब्रह्मांड को देखा गया तो गैस क्लाउड्स वाकई मिले भी.
डोप्लर शिफ्ट इफेक्ट का एक्सपेरिमेंट
इसके सिवा डोप्लर शिफ्ट इफेक्ट के निष्कर्षों से बिग बैंग थ्योरी के अकार्डिंग यह भी साबित हो गया कि एक समय यह ब्रह्मांड छोटा था, जो बाद में एक्सपैंड हुआ और लगातार आज भी एक्सपैंड हो रहा है.
इसे यूं समझ सकते हैं कि एक शोर मचाती गाड़ी आपकी तरफ आती है और गुजरती हुई दूर चली जाती है. उसकी आवाज हल्की से तेज होती फिर हल्की होती जाती है. ऐसा साउंडवेव के वेवलेंथ की वजह से होता है. कोई आवाज आपसे दूर जा रही है तो उसकी वेवलेंथ स्ट्रेच हो कर बढ़ती जाती है, और यही वेवलेंथ जितनी कम होती जायेगी, उतनी ही आवाज आपको तेज सुनाई देगी.
ऐसा ही लाईट के साथ भी होता है क्योंकि वह भी एक वेव है— जो जब हमसे दूर जायेगी तब उसकी वेवलेंथ बढ़ने पर उसके किनारे लाल पड़ते दिखेंगे, जबकि स्थिर होने पर ऐसा नहीं होगा. इसी आधार पर दूर होती गैलेक्सीज हमें यह बताती हैं कि यूनीवर्स एक्सपैंड हो रहा है.
कुल मिलाकर बिग बैंग थ्योरी भले सारे सवालों के जवाब न देती हो पर कई सवालों के जवाब तो जरूर देती है और इस संभावना को बल देती है कि इस यूनिवर्स का निर्माण बिग बैंग से हुआ है. अब यह बिग बैंग खुद से हुआ या यूनिवर्स का निर्माण करने के लिये किसी अलौकिक या वैज्ञानिक शक्ति ने किया— यह तय करने की हालत में कोई नहीं है, लेकिन हम चूंकि ईश्वर के होने की संभावना पर विचार कर रहे हैं तो मान लेते हैं कि यह बिग बैंग उसी ने किया.
ब्रह्माण्ड बिग रिप से खतम होगा, बिग फ्रीज़ से या बिग क्रंच से
अब लगभग यह तय समझिये कि यूनिवर्स बिग बैंग से बना— फिर चाहे यह बिग बैंग किसी अलौकिक/वैज्ञानिक शक्ति के किये हुआ हो या स्वतः ही हुआ हो, पर यह खुद अपने नियम से बंधा है कि जो बना है, उसे नष्ट होना है. इसके नष्ट होने की प्रक्रिया होने को कोई भी हो सकती है लेकिन वैज्ञानिक रूप से इसे ले कर तीन तरह की थ्योरी दी जाती हैं— बिग रिप, हीट डैथ/बिग फ्रीज या फिर बिग क्रंच.
पहले अगर हीट डैथ या बिग फ्रीज की थ्योरी को टटोलें तो यह थर्मोडायनामिक्स के एक लॉ से निकली है, जो कहती है कि अरबों खरबों वर्षों में मैटर धीरे-धीरे अपने आपको रेडियेशन में बदल कर खत्म कर देगा. सभी सितारे अपनी ऊर्जा खो देंगे. ब्रह्मांड एक दिन एकदम ठंडा हो कर अंधकार में डूब जायेगा. इसे गति देने वाली हर ऊर्जा खत्म हो जायेगी और हर चीज ठंडी हो कर स्थिर हो जायेगी.
इसके सिवा जो सामने दिखती संभावना है वह है बिग रिप की— इसे यूं समझिये कि ब्रह्मांड में हर चीज ग्रेविटी से बंधी अपनी जगह पर परिक्रमा कर रही है लेकिन यूनिवर्स में डार्क एनर्जी एक ऐसा बल है जो ग्रेविटी पर हावी हो रहा है और इसकी वजह से ब्रह्मांड फैल रहा है. गैलेक्सीज एक दूसरे से दूर जा रही हैं और बिग रिप की थ्योरी कहती है कि एक दिन यह इतना फैल जायेगा कि ग्रेविटेशनल फोर्स नाममात्र को रह जायेगी. ब्रह्मांड के सारे ऑब्जेक्ट टूट जायेंगे और ग्रेविटी के न होने से एक दूसरे से दूर होते चले जायेंगे.
यहां तक कि एटम्स तक टूट कर बिखर जायेंगे और उनके सबएटमिक पार्टिकल्स यानि प्रोटान, न्यूट्रान और इलेक्ट्रान एक दूसरे से अलग हो जायेंगे. कोई पार्टिकल एक दूसरे से संपर्क नहीं कर पायेगा. इस स्थिति की तुलना आप एक गत्ते के बॉक्स में रखे गुब्बारे से कर सकते हैं, जिसके अंदर आप इतनी हवा भर दें कि वह फूल कर फट जाये.
तीसरी थ्योरी बिग क्रंच की है— जिसके मुताबिक एक दिन इसका फैलाव रुक जायेगा और डार्क एनर्जी के कमजोर पड़ते ही ग्रेविटी पुनः हावी हो जायेगी और सभी गैलेक्सीज एक दूसरे की ओर खिंच कर एक दूसरे से टकराने लगेंगी, और इसका आकार लगातार सिकुड़ता जायेगा.
खत्म होने से एक लाख साल पहले तापमान इतना बढ़ जायेगा— जितना कई तारों की सतह का होता है. इस कंडीशन में एटम्स भी टूट कर बिखर जायेंगे और जगह-जगह बन गये ब्लैकहोल्स द्वारा निगल लिये जायेंगे, जो अपने आसपास का सारा मैटर निगल रहे होंगे.
एक दिन सारा मैटर ब्लैक होल में समां जायेगा
फिर सब मिल कर एक सुपर ब्लैकहोल बन जायेंगे, जिसका मास पूरे यूनिवर्स के बराबर होगा और जो अंततः पूरे यूनिवर्स को निगल जायेगा और यूनिवर्स का सारा मैटर क्रश्ड और कंप्रेस्ड हो कर एक प्वाइंट ऑफ सिंगुलैरिटी पर इकट्ठा हो जायेगा. इसके बाद ब्लैकहोल खुद को खत्म कर लेगा और बचेगा तो वही एक बिंदू, जो अपने अंदर पूरा ब्रह्मांड समेटे होगा— किसी अगले बिग बैंग के इंतजार में. यानी, जहां से चले थे— वहीं पंहुच गये.
अब यहां कुछ बातें अक्सर उठाई जाती हैं— मसलन थर्मोडायनामिक्स के एक नियम के मुताबिक किसी नयी वस्तु का निर्माण पहले से मौजूद किसी चीज से ही हो सकता है— यानि भले यह यूनिवर्स के बनने और नष्ट होने की प्रक्रिया पहले भी दोहराई जा चुकी हो लेकिन जो पहला यूनिवर्स बना, उसके लिये मटेरियल कहां से आया ? जब कुछ भी नहीं था ईश्वर कहां था ? जब ब्रह्मांड एक बिंदू में सिमटा हुआ था और स्पेस ही नहीं था, तब उसके फैलने के लिये आखिर जगह कहां थी ?
इसे गत्ते के बक्से में मौजूद गुब्बारे वाले उदाहरण से समझिये— आपकी कल्पनाशक्ति असल में आपको गुब्बारे के अंदर की स्थिति के हिसाब से ही सोचने पर मजबूर करती है. आप ईश्वर या उससे संबंधित कोई भी सवाल सोचते हैं तो इस गुब्बारे के अंदर ही रह कर सोचते हैं और आपके द्वारा सोचे जवाब क्रैश कर जाते हैं लेकिन अगर उन सवालों के जवाब बाहर निकल कर तलाशें तो ?
इन उपरोक्त तीनों सवालों के जवाब पाने के लिये अपनी सोच को इस ब्रह्मांड रूपी गुब्बारे के बाहर आपको लाना ही होगा. इस ब्रह्मांड के आसपास स्पेस बाक्स के रूप में हमेशा से था— चाहे यह गुब्बारा सिकुड़ कर बस एक इंच बचे या फिर फूल कर पूरे बाक्स भर में फैल जाये. हां वह बाक्स इस गुब्बारे की लिमिट है— इसके अंतिम सिरे तक पंहुचते ही यह एक्सपैंड हो कर फट जायेगा— यानि बिग रिप के रूप में टर्मिनेट हो जायेगा.
क्या यूनिवर्स हाइपरस्पेस में तैरता हुआ बबल है
स्टिंग थ्योरी भी यही कहती है कि हमारा यह यूनिवर्स एक बबल में और दूसरे बबल्स के साथ हाइपरस्पेस में तैर रहा है— इस बबल को आप एक गुब्बारा और हाइपरस्पेस के इस हिस्से को एक गत्ते का बॉक्स समझ सकते हैं. अब तक हासिल ज्ञान के हिसाब से यह यूनीवर्स इतना बड़ा हमें महसूस होता है कि हम इसके बाहर के बारे में सोच ही नहीं सकते. लेकिन थोड़ा ठहर कर बैक्टीरिया की दुनिया के अकार्डिंग खुद का और खुद की दुनिया का साइज शेप नापिये तो बात समझ में आ जायेगी कि यह ब्रह्मांड हमारे लिये जितना बड़ा है, इससे बाहर रहने वाले जीवों के लिये इतना बड़ा शायद न हो.
हमारे हिसाब से एग्जिस्ट करने वाला स्पेस, टाईम, मैटर और लाईफ सबकुछ भले बिग क्रंच और बिग बैंग के बीच एग्जिस्ट करता हो— लेकिन अगर कोई इस गुब्बारे को फुलाने वाला इस बॉक्स के बाहर है तो हमारे हिसाब से वह ‘हमेशा से है’ ही कहा जायेगा.
इस बबल या यूनिवर्स के अंदर जो भी है, वह स्पेस, टाईम और मैटर के प्रभाव से बच नहीं सकता लेकिन जो इस बबल से बाहर है, वह निश्चित तौर पर इस प्रभाव से मुक्त होगा. अब अगर इस बाहरी शक्ति को हम मान्यता देते हैं तो इस तीसरे सवाल का जवाब भी सामने आ जाता है कि यह ‘मटेरियल’ पहली बार कहां से आया ?
हालांकि इन संभावनाओं को मान्यता देते ही सवालों की सीरीज खड़ी हो जाती है कि इस बाक्स में रखने के लिये मटेरियल भले बाहर से आया, लेकिन बाहर भी इस तरह के मटेरियल कहां से आये ? अगर इस बाक्स में इस मटेरियल को रखने वाला पहले से एग्जिस्ट करता है तो फिर उसे किसने बनाया और जिसने उसे बनाया, फिर उसे किसने बनाया ? हमारे यूनिवर्स की एक सीमा है, बॉक्स रूपी— तो उसकी भी कोई सीमा होगी और जिस बॉक्स में उसकी दुनिया होगी, उसके बाहर आखिर क्या होगा ?
इस तरह सवालों के जवाब ढूंढना असंभव हो जायेगा इसलिये हम इसे अपने से एक स्टेप आगे तक के जवाब तक सीमित रखें, वही बेहतर है— उससे आगे के सवालों से उस दुनिया के लोग भी शायद इसी तरह जूझ रहे होंगे.
अब अगर इस हिसाब से सोचना शुरू करें और इन सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश करें तो एक ‘सपोज’ के रूप में मान लेते हैं कि यह सब ईश्वर की क्रियेशन है और सबकुछ किसी सर्वशक्तिमान ईश्वर ने बनाया है तो आगे कुछ सवाल और खड़े होते हैं— जिसमें ‘वह खुद कहां से आया या उसे किसने बनाया’ से अगर किनारा कर भी लें तो एक चीज तो हमें फिर भी सोचनी पड़ेगी कि उसने यह सब बनाया तो क्यों बनाया ?
स्पेस, टाइम और मैटर ही ब्रह्माण्ड का मूल है
जिस यूनिवर्स/सिस्टम या सृष्टि को हम जानते हैं वह तीन चीजों पर डिपेंड है— हाईट, विथ, डेप्थ के रूप में स्पेस— पास्ट, प्रेजेंट और फ्यूचर के रूप में टाईम और सालिड, लिक्विड और गैस के रूप में मैटर. अब अगर इन चीजों से उसने इंसान समेत समूचे सिस्टम को बनाया है तो यह तय है कि हम या यह सृष्टि इन्हीं तीन चीजों पर डिपेंड है और फिजिक्स के सारे लॉज हमें इनसे बंधा होने की पुष्टि करते हैं. अगर रचना के रूप में हम टाईम, स्पेस और मैटर से बंधे हैं तो कम से कम हमें रचने वाला रचनाकार इनसे मुक्त होना चाहिये.
उस हिसाब से अब इनमें से अगर हम ‘स्पेस’ की बात करें तो ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स कितना भी बड़ा क्यों न हो, इसे बनाने वाला इसके अंदर नहीं हो सकता, जैसे कंप्यूटर जैसा सुपर ऑब्जेक्ट बनाने वाला इसके भीतर नहीं हो सकता. यह पूरा सिस्टम थ्री डायमेंशनल है और इसके साथ एक पहलू यह भी है कि किसी डायमेंशन में रहने वाला जीव अपने से एक डायमेंशन कम में देख पाता है.
जैसे हम किसी एक प्वाइंट पर बैठ कर देखें तो दूर दिखती चीज अगर दाये बायें मूव करती है तो हम समझ लेंगे, ऊपर नीचे मूव करती है तो हम समझ लेंगे, लेकिन अगर वह हमारी तरफ आगे या पीछे हो रही है तो हम उसे सिर्फ एक इकलौती कंडीशन में समझ सकते हैं कि अगर वह हमारी तरफ आ रही है, तो क्षण-प्रतिक्षण बड़ी होती जायेगी और अगर हमसे दूर जा रही है तो क्षण-प्रतिक्षण छोटी होती जायेगी.
लेकिन एक पल के लिये मान लें कि कोई बड़ा ऑब्जेक्ट लगातार हमारी तरफ आते हुए छोटा होता जाये या कोई छोटा ऑब्जेक्ट हमसे दूर जाते हुए लगातार बड़ा होता जाये— तो क्या हमारा दिमाग उसे समझ पायेगा ? जबकि इसी कंडीशन में मान लीजिये कोई ऊपर आस्मान में बैठ कर हमें और उस ऑब्जेक्ट को, दोनों को देख रहा है तो उसे यह चीज साफ-साफ समझ में आयेगी.
इसी तरह यह मान लीजिये कि इस स्पेस की लंबाई, चौड़ाई और गहराई को इसके बाहर रह कर इसे बनाने वाला स्पष्ट रूप से देख लेगा— जबकि इसके अंदर रह कर इसे समझने में हमारी बुद्धि फेल हो जायेगी. इसे यूं भी समझ सकते हैं कि ब्राह्मांड की उम्र हम 13.7 अरब वर्ष इस आधार पर लगाते हैं कि इससे पुरानी रोशनी हम डिटेक्ट नहीं कर सके— लेकिन क्या गारंटी है कि इससे पुरानी रोशनी होगी भी नहीं ?
मैटर की सॉलिड, लिक्विड और गैस के सिवा भी कोई फॉर्म हो सकती है ?
अब आइये मैटर पे— हम मैटर की तीन ही फॉर्म जानते हैं, सॉलिड, लिक्विड और गैस के रूप में क्योंकि हमारे आसपास यही अवलेबल हैं. लेकिन जिसने इन एलीमेंट्स से यह जटिल रचना की है, उसके बारे में यह दावा कैसे किया जा सकता है कि वह भी इन्हीं में से किसी एक मटेरियल से बना है. जब इस सिस्टम से बाहर का हम कुछ जानते ही नहीं तो कोई भी अंदाजा लगाना बेकार ही है— लेकिन चूंकि हम एक संभावना पर विचार कर रहे हैं तो ‘सपोज’ कर लेते हैं कि वह गैस, लिक्विड या सॉलिड से इतर किसी और मटेरियल से बना है या तीनों के ही किसी यूनीक संयोजन से बना है.
ऐसी स्थिति में एक संभावना यह भी पैदा होती है कि जितना बड़ा यह यूनिवर्स है— उस हिसाब से इसे बनाने वाला खुद इतना बड़ा न भी हो तो भी इसके आसपास तो अपना साइज और वजन रखता ही होगा. यहां थ्योरी बनती है यूनिवर्स के तीसरे पिलर ‘टाईम’ की. जैसा कि हमें पता है कि टाईम एब्सोल्यूट नहीं है और मास की वजह से बनी ग्रेविटी जितनी ज्यादा होगी, वक्त उतना ही धीमा गुजरेगा. यानी, इस पूरे यूनिवर्स में सबका टाईम एक सरीखा नहीं गुजरता है बल्कि सबका टाईम अलग-अलग गुजरता है.
इसे छोटे और थोड़े अलग उदाहरण से आप दो चार घंटे के जीवन वाले जीवाणु, या दो चार दिन के जीवन वाले मच्छर जैसे कीट के जीवन चक्र से समझ सकते हैं— जितने वक्त में उनका पूरा जीवन गुजर जाता है, हमारे आपके कुछ घंटे या कुछ दिन गुजरते हैं. अगर हम यूनिवर्स के बाहर इसी साईज के ईश्वर के एग्जिस्टेंस को स्वीकारते हैं तो उसे वह मॉस और ग्रेविटी भी देनी पड़ेगी जहां वक्त या तो पलक झपकने भर में लाखों साल गुजरने बराबर होगा या फिर लगभग थमा हुआ होगा.
वह हमारे टाईम के प्रभाव से मुक्त होगा, यह तय है— और हम जो साठ-सत्तर साल के जीवन में करोड़ों अरबों साल का सफर सोच कर भी ऊब जाते हैं— असल में यह शायद दो चार दिन या दो चार हफ्तों का खेल भर हो. ईश्वर को स्वीकार्यता देने में सबसे बड़ी बाधा यही है कि अगर इंसान जैसी सुप्रीम स्पीसीज, फिर चाहे वह कई दूसरे प्लेनेट्स पर भी क्यों न हो, अगर इस रचना का प्रमुख कारण है तो उसका अस्तित्व मात्र कुछ लाख साल ही है, जबकि इसी प्लेनेट को बने चार अरब और इस यूनिवर्स को बने लगभग चौदह अरब साल हो गये हैं.
यहां यह लंबा ‘निर्जन वक्त’ सबसे बड़ी बाधा है— जिसे अगर हम उस बाहरी शक्ति के हिसाब से ‘ठहरे’ या ‘पलक झपकते’ वक्त के बराबर रखें तो यह चीज समझी जा सकती है कि ऐसा क्यों है. आखिर गर्म खौलती चाय भी हम बर्तन से निकाल कर तत्काल नहीं पी लेते, बल्कि उसे पीने के लिये ‘सही स्थिति’ बनने का इंतजार करते हैं कि इतनी ‘गर्म’ न हो कि मुंह जल जाये और इतनी ‘ठंडी’ भी न हो जाये कि स्वाद ही खो बैठे.
ईश्वर का जन्म और मृत्यु
फिर भी हम टाईम, स्पेस और मैटर के बंधन से मुक्त करके उसके अस्तित्व को स्वीकार्यता देते हैं तो भी कुछ चीजों को हमें मान्यता और देनी होगी. पहला यह कि जो नियम यूनिवर्स के अंदर लागू होता है कि बिना क्रियेटर कोई चीज क्रियेट नहीं हो सकती— वह नियम उस पर भी लागू होगा. उसका ‘कोई नहीं है’ कहना किसी अनाथ पृथ्वीवासी के समतुल्य तो हो सकता है, जिसके अपने परिवार में कोई न हो, लेकिन इस बात से नकार नहीं हो सकता कि दूसरे पृथ्वीवासियों की तरह उसकी दुनिया में भी उसके जैसे लोग नहीं हैं. अब चूंकि जो चीज अस्तित्व में आई है, उसका कभी न कभी तो अंत होगा ही— वह खुद भी इस नियम से मुक्त नहीं हो सकता.
दूसरी बात कि हम इस यूनिवर्स के अंदर भौतिकी के उन नियमों से बंधे हैं जो उसने तय किये हैं— मसलन हमारी दुनिया में कोई भी मास न होने के कारण रोशनी के कण फोटॉन्स से तेज (लगभग तीन लाख किलोमीटर पर सेकेंड) कोई भी चीज नहीं चल सकती. ठीक इसी तरह उसकी दुनिया के नियमों से वह भी बंधा होगा क्योंकि बिना नियमों के कोई भी दुनिया स्टेबल नहीं रह सकती. ऐसे में यह दावा कि वह सर्वशक्तिमान है, उसकी पॉवर इनफिनिट है और सबकुछ कर सकने में समर्थ है— बेमानी ही है.
बहरहाल अगर हम ईश्वर को इस रूप में डिफाईन कर लेते हैं तो आगे यह सवाल खड़ा होता है कि उसने यह सब आखिर रचा क्यों ? क्या जरूरत थी उसे इतने पेचीदा सिस्टम को बनाने की. एक क्रियेटर के तौर पर हम नावल लिखते हैं, फिल्म बनाते हैं या वीडियो/कंप्यूटर गेम या कोई सिमूलेशन प्रोग्राम बनाते हैं तो उसमें जीवन का गढ़न हम खुद करते हैं— उनके लिये अनुकूल या विपरीत परिस्थितियों को हम क्रियेट करते हैं. इसकी एक वजह होती है – हम दूसरों का मनोरंजन करना चाहते हैं उसके माध्यम से या फिर किसी तरह का एक्सपेरिमेंट. ऐसे ही यह यूनिवर्सल प्रोग्राम बनाने के पीछे खुदा का क्या मकसद हो सकता है ?
ईश्वर ने दुनिया क्यों बनायीं ?
किसी आस्तिक के पास इसका इकलौता जवाब होता है कि यह दुनिया (संपूर्ण सृष्टि) उसने हमारे लिये बनाई है और वह चाहता है कि हम उसके बताये रास्ते पर चलें और उसकी इबादत करें— यह सबसे फनी जवाब होता है. आपको नहीं लगा ? वेल— थोड़ी देर के लिये खुद को क्रियेटर की जगह रख लीजिये और सोचिये कि आप कहानी लिखते हैं, फिल्म बनाते हैं जहां किरदार आपकी इच्छा से सबकुछ एक्ट करेंगे या कैरेक्टर्स को आर्टिफिशल इंटेलिजेंस दे कर कोई कंप्यूटर गेम बनाते हैं जहां जो कुछ भी हो वह नावल या फिल्म की तरह तयशुदा न हो
और अब कल्पना कीजिये कि आप के द्वारा आपरेट या स्वचलित पात्र बस आपकी मर्जी से एक्ट कर रहे हैं, आपकी खुशामद करने में लगे हैं और दिन रात आपका स्तुतिगान या चरणवंदना में लगे हैं— तो क्या फील होगा आपको ? आपकी बुद्धि इस चीज को स्वीकार कर पायेगी कि मेरी कहानी का हर किरदार बस मेरे स्तुतिगान में लगा है और इस स्तुतिगान को सुनने के लिये ही मैंने इस कहानी को लिखा है या इस कंप्यूटर गेम को डिजाईन किया है ?
अब सवाल उठता है कि चलिये मान लिया कोई ईश्वर है, और उसी ने यह सब बनाया है लेकिन आखिर क्यों ? क्या मकसद है इसका ?
इस रचना के मकसद को समझने के लिये अगर इस पहलू पर गौर करें कि असल में यह सिस्टम है क्या तो शायद मकसद को समझने में आसानी हो. यह पूरा यूनिवर्सल सिस्टम, या जो भी हम देखते, सुनते, समझते हैं— इसके साथ तीन संभावनायें जोड़ी जाती हैं. पहली यह कि या तो यह सब हकीकत में है, या फिर आधी हकीकत और आधा इल्यूजन है और या फिर यह पूरा का पूरा सिमूलेटिंग प्रोग्राम यानि काल्पनिक दुनिया है, जिसमें हम बस कंप्यूटर गेम के कैरेक्टर्स की तरह एक्ट कर रहे हैं.
दुनिया बनाने का क्या मकसद हो सकता है ?
चलिये पहली संभावना पर बात करते हैं— कि यह पूरा ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स एक ठोस हकीकत है. अब यहां आपको यह सोचना है कि हमें बनाने के पीछे के दोनों व्यू, यानि या तो सबकुछ हमारे लिये बनाया गया है या हमें उसने अपने या अपने बीच के लोगों के मनोरंजन के लिये बनाया है— क्या इस सूरत में यह वजनदार कारण लगते हैं कि हम इतने बड़े यूनिवर्स के एक लगभग ‘नथिंग’ हिस्से पर ही एग्जिस्ट कर रहे हैं ! और मजे की बात यह है कि हमारी न अपने आसपास के प्लेनेट्स पर पंहुच ही है और न सिर्फ अपने सोलर सिस्टम से बाहर निकलने लायक उम्र हम रखते हैं— बाकी गैलेक्सी तक पंहुच तो कल्पना से भी बाहर है !
इसे एक उदाहरण से समझिये कि एक बड़े से हाल में आप एक छोटे से बाक्स में कुछ बैक्टीरिया रखिये, जिनके पास उस बाक्स से निकलने लायक भी न क्षमता हो न उम्र— उन्हें रखने का आपका मकसद कुछ भी हो, पर आपको पता है कि उनके लिये वह अकेला बाक्स ही काफी है लेकिन फिर भी आप वैसे ही लाखों बाक्स से वह पूरा हाल भर देते हैं जिनका कोई उपयोग ही न हो— क्या आपको अपना यह कार्य तर्कसंगत लगेगा ?
किसी रेगिस्तान में जा कर खड़े हो जाइये और सोचिये कि दसियों किलोमीटर दूर तक फैली रेत के बीच एक कण पर आपने कुछ माइक्रो बैक्टीरिया बिठाये हैं और वह बस इसलिये हैं कि या तो आपकी इबादत करें या उनका उद्देश्य आपकी दुनिया के लोगों का मनोरंजन है या फिर उनके जरिये आप कोई एक्सपेरिमेंट कर रहे हैं— लेकिन इस एक काम के लिये आपने खरबों-खरबों कणों वाला दसियों किलोमीटर लंबा चौड़ा रेगिस्तान उस एक कण के आसपास बसाया है तो क्या आप खुद अपने कार्य को तर्कसंगत ठहरा पायेंगे ?
अगर हम इस पूरे यूनिवर्स को ठोस हकीकत भी मानते हैं और ईश्वर को भी मान्यता देते हैं तो यकीन जानिये कि फिर हम इस रचना के पीछे उसके मकसद को समझने में सिरे से फेल हैं. कम से कम उपरोक्त दोनों तीनों कारण तो हर्गिज नहीं हो सकते.
दूसरी सम्भावना: आधी हकीकत और आधा फ़साना
अब आधी हकीकत और आधा फसाना वाली दूसरी संभावना पे आइये. यानी, हाफ रियल हाफ इल्यूजन. कुछ विचारकों की नजर में हकीकत बस इतनी है कि हम जिस सौरमंडल और गैलेक्सी में रहते हैं, बस यह रियल है और बाकी स्पेस जो हमें दिखता है वह इल्यूजन है. इसे दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं.
हम आकाश में एक अरब प्रकाश वर्ष दूर के एक सितारे को देखते हैं तो असल में हम एक अरब वर्ष पहले भेजी फोटान्स से बनी एक इमेज भर देख रहे होते हैं, जबकि हकीकत में हो सकता है कि वह सितारा लाखों करोड़ों साल पहले ही खत्म हो चुका हो. स्पेस में हम जो कुछ भी देखते हैं वह बस छवि भर होती है जो एक घंटा पुरानी हो सकती है और करोड़ों अरबों वर्ष पुरानी भी— रियल में उसके होने की कोई गारंटी नहीं.
यह हमारी सीमितता है कि हम न अपने सोलर सिस्टम से बाहर निकलने में सक्षम हैं और न ही किसी भी तारे, ग्रह या पिंड का एक्चुअल टाईम व्यू देख पाने में. मतलब एक संभावना के तौर पर हम मान भी लें कि कभी हम रोशनी की गति से चल पायेंगे तो हमें अपनी गैलेक्सी से निकलने में चौदह हजार साल लग जायेंगे, जबकि पृथ्वी पर तो इस बीच एक लाख एक हजार साल गुजर जायेंगे.
यानी, यह हमारी लिमिटेशन है और इसे जानते हुए क्रियेटर ने हमारे आसपास इस ऑब्जर्वेबल यूनिवर्स का इल्यूजन क्रियेट कर दिया हो तो इसकी संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता. स्पेस में कुछ रेडियो सिग्नल्स और फोटॉन्स के सिवा दूसरा जरिया भी क्या है हमारे पास ?
और जो स्पेस, टाईम और मैटर को मिला कर इतनी जटिल संरचना तैयार कर सकता है— उसके लिये ऐसा इल्यूजन तैयार करना, या धोखा देने वाले फोटॉन्स क्रियेट करना भला कौन सा मुश्किल होगा ! इस थ्योरी को मानने से यह चीज क्लियर हो सकती है कि हमारी उत्पत्ति का कारण असल में किसी तरह का एक्सपेरिमेंट या मनोरंजन हो सकता है. आखिर हम इंसान भी इस प्लेनेट अर्थ पर तरह-तरह के कंप्यूटर या रियल वर्ल्ड सिमुलेशन गेम बना कर ऐसा ही करते हैं.
तीसरी सम्भावना: हम एक सिमुलेशन प्रोग्राम में हैं
अब आइये तीसरी थ्योरी पे जो कहती है कि हम बस एक सिमुलेशन प्रोग्राम में जी रहे हैं. सिमुलेशन दरअसल एक प्रोग्राम या सॉफ्टवेअर को कहते हैं जिसमें हम कोड्स के माध्यम से एक ऐसी दुनिया क्रियेट करते हैं जो बिलकुल हमारे जैसी होती है— जहां हम वह सब नियम अप्लाई कर कर सकते हैं जो रियल वर्ल्ड में होते हैं. मसलन, ग्रेविटी या गेम के कैरेक्टर का ठोस पदार्थ से पार न हो पाना. इन्हें रियल वर्ल्ड सिमुलेशन गेम कहते हैं. सिमुलेशन हाइपोथेसिस का विचार 2003 में निक बोस्ट्रम ने दिया था, जिसे सिमुलेशन आर्ग्यूमेंट कहते हैं— संभावना के तौर पर स्टीफन हाकिंग ने भी सिमुलेशन हाइपोथेसिस को सही माना था.
अब सिमुलेशन कांसेप्ट को अगर संभावना के तौर पर रखें तो इसके दो लक्ष्य होते हैं— या मनोरंजन या एक्सपेरिमेंट. अगर हम इस थ्योरी के साथ स्टिक करते हैं तो फिर हमारे गढ़न का मकसद इन्हीं दो में से एक हो सकता है.
इसे समझने के लिये हमें फिर से एक उदाहरण लेना होगा— अपना मोबाइल सामने रखिये और कोई गाना या फिल्म चलाइये. समझिये कि यह क्या है— उसमें पानी भी दिख रहा है, ठोस धातु से बनी चीजें भी दिख रही हैं और गोश्त पोश्त से बने इंसान भी. ऐसा कैसे होता है ? इन अलग-अलग चीजों को दर्शाने के लिये क्या स्क्रीन के पीछे अलग-अलग तत्व इस्तेमाल होते हैं— जी नहीं, यह सब एक तरह के डांसिंग पिक्सल्स हैं जो कलर चेंज करते अलग-अलग चीजें दिखाते हैं. यानी, स्क्रीन पर चीजें आपको अलग-अलग भले दिखें लेकिन इनके मूल में एक ही तत्व है.
ठीक इसी तरह अपने आसपास आपको जो भी अलग-अलग चीजें दिखाई देती हैं वे सब एक ही तत्व के अलग-अलग संयोजन से बनी होती हैं और वह होता है एटम, जिसके अंदर और भी कई इकाई होती हैं. स्टिंग थ्योरी के अनुसार पदार्थ की सबसे सूक्ष्म इकाई स्टिंग होती हैं जो अलग-अलग पैटर्न पर वाइब्रेट करती हैं और उनके यह अलग पैटर्न ही अलग-अलग पदार्थ का निर्माण करते हैं.
यानी, दिखने में भले कार और पानी में जमीन आसमान का फर्क हो लेकिन इसके मूल में एटम्स ही मिलेंगे और एक थ्योरी के अनुसार ऐसी हर चीज एक मैथमेटिकल इक्वेशन रखती है, जिसे तोड़ कर जीरो और वन की फिगर के बाइनरी कोड में कनवर्ट किया जा सकता है.
हमारा दिमाग असल में एक सॉफ्टवेयर की तरह काम करता है जो आंख के जरिये सामने दिखती किसी भी चीज को बाइनरी कोड के माध्यम से पहचान कर हमें दिखाता है और कभी-कभी किन्हीं अलग स्थितियों में, मसलन नशे की ही— वह इस बाइनरी कोड को ठीक से डिटेक्ट नहीं कर पाता और तब हमें रस्सी की जगह सांप दिखाई देने लगता है.
सिमुलेटिंग प्रोग्राम की कोडिंग दिमाग की तरह होती है
इन कोड्स के माध्यम से ही एकदम रियल जैसे दिखने वाले कंप्यूटर गेम या सिमुलेटिंग प्रोग्राम बनाये जाते हैं और जिस तरह इन गेम्स या प्रोग्राम्स में कैरेक्टर एक्ट कर रहे होते हैं, ठीक वैसे ही इस थ्योरी के हिसाब से हम एक्ट कर रहे हैं. अब यहां आप सवाल उठा सकते हैं कि जब हम हकिकत में खुद को खाता पीता, हगता मूतता, मेहनत या ऐश करता, सुख दुख, बीमारी, मौत महसूस करता पा रहे हैं तो यह कल्पना कैसे हो सकती है ?
इसके लिये आपको रात सोते वक्त यह प्रयोग करना होगा कि आप रात भर जो सपने देखें— अगली रात सुबह उठते ही उन्हें याद करें और फिर खुद से पूछें कि क्या सपने में महसूस हुई वह सारी फीलिंग्स असली नहीं थीं ? आपने सपना देखा, यह आपको तब महसूस हुआ जब आप सुबह उठे— वर्ना सपने में आप इस बात को महसूस कर ही नहीं सकते कि आप सपना देख रहे हैं. यह हमारी चेतना की कारीगरी है.
चेतना ही इस सिमुलेशन हाइपोथेसिस का सबसे बड़ा फच्चर है— इसके लिये दावा किया जाता है कि यह सुपर नेचुरल है और इसे बनाया नहीं जा सकता, बाकी चाहे सबकुछ बना लिया जाये. फिलहाल वैज्ञानिक इसी दिशा में काम कर रहे हैं और पिछले साल ‘सोफिया’ नाम की रोबोट इसी दिशा में एक कदम थी.
वैसे ‘टर्मिनेटर’ नाम की मूवी का कांसेप्ट भी यही था जहां स्काईनेट नाम का कंप्यूटर प्रोग्राम खुद की चेतना विकसित कर लेता है और पृथ्वी पर अपना कब्जा कर लेता है. इसे किसी गेम के उदाहरण से भी दूसरे तरीके से समझ सकते हैं जहां दो प्लेयर्स बाक्सिंग करते हैं, या चेस/क्रिकेट आदि खेलते हैं और एक प्लेयर पर आपका होल्ड रहता है, जबकि दूसरे पर कंप्यूटर अपना दिमाग लगाता है. यह भी तो चेतना का ही एक छोटा रूप है. आगे हो सकता है दोनों प्लेयर्स को उनका अपना दिमाग दे दिया जाये और वे खुद से एक्ट करें और आप बाहर से बस दर्शक के तौर पर देखें और उनकी हार जीत पर सट्टा लगायें.
‘आर्टिफिशल इंटेलिजेंस’ को ज्यादातर लोग ‘टर्मिनेटर’, या ‘आई रोबोट’ कांसेप्ट की वजह से हालाँकि खतरनाक मानते हैं लेकिन इसके बावजूद इस दिशा में काम चल रहा है और जिस दिन हम स्थाई रूप से इस चेतना को बनाने में कामयाब हो गये, इस थ्योरी का दावा और भी पुख्ता हो जायेगा कि हम असल में एक सिमुलेटिंग प्रोग्राम में हैं और हमें डिजाईन करने वाला किसी एक्सपेरिमेंट या मनोरंजन के लिये हमें बना कर चुपचाप तमाशा देख रहा है— लगभग ठहरे हुए वक्त में और हम यहां साल पर साल गुजारते चले जा रहे हैं.
क्या आपने बेहतरीन ग्राफिक्स और विजुअल्स वाला वीआर हेडसेट यूज किया है— वह 360 डिग्री व्यू मे जो भी दिखाता है वह वर्चुअल रियलिटी होती है और आप भूल जाते हैं कि हकीकत में आप कहां हैं. यानी आप अपने बेडरूम के सपाट फर्श पर भले खड़े हों लेकिन अगर प्रोग्राम में आप किसी ऊबड़ खाबड़ जगह दिख रहे हैं तो आप एग्जेक्टली वैसा ही महसूस करेंगे. यानी, आपका शरीर कहीं है लेकिन दिमागी तौर पर आप कहीं पंहुच जाते हैं और तब जो देखते हैं, आपके लिये वही हकीकत होता है.
इसे अगर आपने ‘अवतार’ फिल्म देखी है तो बेहतर ढंग से समझ सकते हैं जहां मूल कैरेक्टर एक मशीन में रहता है और उसकी चेतना को एक उसी ग्रह के वातावरण के हिसाब से डिजाईन किये ‘अवतार’ में ट्रांसफर कर दिया जाता है— यह जिन सिग्नल्स की मदद से संभव होता है, वे बाइनरी कोड में लिखे जा सकते हैं. एक अनैलेसिस के मुताबिक जिस एल्गोरिथम और पैटर्न से गूगल आपकी इच्छित सूचना सर्च करता है, आपका दिमाग भी वही पैटर्न यूज करता है— यानि दिमाग के काम करने के तरीके का एक कोड हमारे पास है तो पूरी चेतना भी तो इसी रूप में हो सकती है जिसे कहीं और से आपरेट किया जा रहा हो.
इंसान किसी सिविलाइजेशन का एक्सपेरिमेंट हो सकता है
बहरहाल, इस पूरे सिस्टम को अगर सिमूलेशन मानते हैं तो एक संभावना यह भी बनती है कि यह किसी एडवांस सिविलाइजेशन का कोई एक्सपेरिमेंट हो या फिर भविष्य के इंसान ही यह प्रोग्राम बना कर अपना अतीत देख रहे हों. बहरहाल कुछ भी हो— यह तय है कि अगर किसी ने हमें बनाया है तो फिर हमारे लिये वही ईश्वर है और यकीनन इस संभावना को मान्यता देते ही आपको यह मानना पड़ेगा कि ऐसा है तो फिर ईश्वर दो हैं— एक वह है जिसने इस पूरे सिस्टम को बनाया और दूसरा वह है जिसे इंसानों ने बनाया.
इंसानों ने जिसे बनाया— उस पर अपनी समझ, फितरत, और अब तक हासिल ज्ञान के हिसाब से अपनी कल्पनायें अप्लाई कर दी. कहीं निराकार तो कहीं तीन चार मुंह वाला बना दिया, कहीं नूर यानी रोशनी से बिना शेप साईज बना दिया, कहीं आस्मान दाहिने हाथ में पकड़ा दिया तो कहीं सिंहासन पर बिठा दिया— और उस पर अपने इंसानी जज्बात भी उसी रूप में अप्लाई कर दिये कि वह इंसानों की तरह ही चापलूसी से खुश होता है, इंसानों की तरह दुःखी होता है और इंसानों की तरह ही आगबबूला भी हो जाता है और हिंसात्मक रूप से सजा देने की धमकी देने लगता है.
अब अगर हम गाड्’स एग्जिस्टेंस की संभावना पर चर्चा कर रहे हैं तो फरिश्तों, नबी/पैगम्बर और अवतारों के बारे में भी कोई संतोषजनक उत्तर खोजने होंगे क्योंकि ईश्वर के कांसेप्ट के साथ यह चीजें भी अनिवार्य रूप से जुड़ी हैं. पहले फरिश्तों के बारे में बात करते हैं जिनके लिये यह अवधारणा है कि वे स्प्रिचुअल मैटर से बने हैं यानि ऐसा पदार्थ जो इस दुनिया का नहीं.
एक आस्तिक-नास्तिक की बहस में केंट हॉविंड से यह सवाल पूछा गया था कि स्प्रिचुअल फोर्स के रूप में फरिश्ते पदार्थ से बने किसी ऑब्जेक्ट को कैसे इफेक्ट कर सकते हैं और मैटर से बने पेन की नोक पर स्प्रिचुअल मैटर से बने कितने फरिश्ते डांस कर सकते हैं ?
उनका जवाब था कि एक इंसान के तौर पर भले हम मैटर से बने हैं लेकिन खुशी, दुःख, क्रोध, जलन जैसे जज्बात आखिर किस मैटर से बने हैं— लेकिन फिर भी वे पदार्थ से बने हमारे शरीर को इफेक्ट करते हैं या नहीं ? अगर गुस्से में हम सड़क पर पड़े केन को ठोकर मार कर दूर उछाल देते हैं तो यहां एक नथिंग मटेरियल से पैदा हुआ गुस्सा पदार्थ से बने केन और हमें, दोनों को इफेक्ट कर रहा है या नहीं ?
फरिश्ते की स्प्रिचुअल फोर्स को हम इन जज्बात या भावनाओं के रूप में डिस्क्राईब कर सकते हैं जो हमें नार्मल से अलग व्यवहार करने पर मजबूर करते हैं और चीजें एक साथ केमिकल रियेक्शन के रूप में आपके दिमाग में रहती हैं. जो भी बड़े-बड़े पंखों वाले हांड़ मांस के बने फरिश्तों की कल्पना करता है— उसे इस तरह के सवालों के जवाब नहीं मिल सकते कि स्प्रिचुअल मैटर किसी मैटर को कैसे इफेक्ट कर सकता है और पेन की टिप पर कितने फरिश्ते डांस कर सकते हैं. फरिश्ते यानि बस एक ऐसी स्प्रिचुअल फोर्स जो किसी माध्यम से आपको ‘नालेज’ भी दे सकते हैं और कोई अच्छा या बुरा काम भी करवा सकते हों— इससे ज्यादा स्पेस उन्हें नहीं दिया जा सकता.
प्रोग्राम्ड सिस्टम में किसी प्रोफेट की क्या भूमिका हो सकती है ?
अब आइये नबी/पैगम्बर, अवतार की भूमिका पर— अगर आप संपूर्ण ब्रह्मांड को एक ठोस हकीकत मानते हैं तो फिर आपको यह समझना होगा कि आपकी हैसियत एक एटम में बंद प्रोटान, न्यूट्रान और इलेक्ट्रान से ज्यादा नहीं— जिन्हें नंगी आंखों से देखा भी नहीं जा सकता और खरबों एटम्स हमारे आसपास बिखरे पड़े हैं. या लंबे चौड़े रेगिस्तान में खड़े हो कर उंगली पर रेत का एक कण ले कर यह समझ लीजिये कि इस कण के अंदर आप है और तब सोचिये कि एटम या रेत के कण के बाहर मौजूद एक इंसान के तौर पर आप उसके अंदर मौजूद कुछ जीवों या कणों के लिये कोई गाइडलाईन जारी करने की जहमत उठायेंगे ?
जाहिर है आपका जवाब नकारात्मक होगा— ऐसे में आप इन दोनों चीजों को एक साथ नहीं मान सकते, कि पूरा यूनिवर्स एक हकीकत है और इसके एक लगभग न दिखने वाले ग्रह पर सूक्ष्म बैक्टीरिया से भी गयी गुजरी हैसियत वाले इंसानों के लिये कोई गाईडलाईन जारी करने के लिये कुछ नबी/पैगम्बर, अवतार भेजे गये हैं. हम इस यूनिवर्स को ठोस हकीकत मानते हैं तो असल में हम सिरे से इसके मकसद को ही समझने में फेल हैं— फिर नबी/पैगम्बर या अवतार तो बहुत बाद की बात हैं.
मतलब पृथ्वी जैसे एक ग्रह पर जीवन के लिये अनुकूल स्थितियां बनाना और उसके आसपास इतना बड़ा ब्रह्मांड रच देना कि उसके एक प्रतिशत हिस्से तक भी हमारी पंहुच न हो— कहीं से तर्कसंगत नहीं. हम प्रकाश की गति की लिमिट में बंधे हैं जो तीन लाख किलोमीटर पर सेकेंड के सर्वोच्च शिखर पर होते हुए भी स्पेस के साईज के अकार्डिंग चींटी की चाल से भी गयी गुजरी है कि इस गति से हम एक जीवन में दूसरे सौरमंडल तक भी बमुश्किल पंहुच पायें. अपनी गैलेक्सी से निकलने में कई पीढ़ियां चुक जायेंगी तो स्पेस में कहीं और पंहुचने की कल्पना ही बेमानी है, फिर उस स्पेस का हमारे लिये मतलब ही क्या रह जाता है ?
लेकिन अगर हम हाफ इल्यूजन या फुल सिमुलेशन वाले ऑप्शन पर जाते हैं तो यह चीजें प्रासंगिक हो जाती हैं. इसे इस उदाहरण से समझ सकते हैं कि हमारा कंप्यूटर ठीक ठाक काम कर रहा होता है कि उसमें कुछ वायरस आ जाते हैं जो फाइलों को करप्ट करने लगते हैं और उसे ठीक से फंक्शन नहीं करने देते— तब हम कंप्यूटर में एंटीवायरस इंस्टाल करते हैं जो ढूंढ ढूंढ कर उस वायरस को खत्म करता है ताकि कंप्यूटर फिर ठीक से काम करने लगे. इस एंटीवायरस को ही हम नबी/पैगम्बर या अवतार की संज्ञा दे सकते हैं.
सही खुदा या गलत खुदा
बहरहाल— अगर आप आस्तिक हैं और खुदा/ईश्वर पर यकीन रखते हैं तो थोड़ा चिंतन कीजिये, मनन कीजिये और तय कीजिये कि कहीं आपने गलत खुदा का दामन तो नहीं पकड़ रखा ? एक आस्तिक के तौर पर जब आप अपनी शिकायतों की पोथी ले कर इधर-उधर सवाल करते हैं कि खुदा है तो ऐसा क्यों है या वैसा क्यों है— वह जरूरत के टाईम सामने क्यों नहीं आता या जरूरत के वक्त लोगों की मदद क्यों नहीं करता ? तो असल में यह आपकी कमी है कि आप सवाल उस खुदा से और उस खुदा के लिये पूछ रहे हैं जो इंसानों द्वारा निर्मित है.
अगर कोई खुदा वाकई है तो वह हर्गिज नहीं है जिसे आप दुनिया में मौजूद धर्मों से संबंधित खुदा के रूप में जानते हैं. वह अगर होगा तो इन सब चीजों से निर्लिप्त होगा— यह तय है और यहां यह जो ‘क्यों-क्यों’ करके हजारों सवाल हैं, वह दरअसल आपको खुद से करने चाहिये न कि उससे— क्योंकि एज ए क्रियेटर आप खुद अपनी क्रियेशन पर वह सब नहीं थोपना चाहेंगे, जिसके खिलाफ अभी आपके मन में सवाल उठते हैं.
तो अगर ईश्वर में यकीन रखते हैं तो रांग गॉड से पीछा छुड़ाइये और राईट गॉड का दामन पकड़िये. अपने सवालों के जवाब आपको खुद मिल जायेंगे.
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