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जब धरती पर खत्म हो गया था ऑक्सीजन !

जब धरती से खत्म हो गया था ऑक्सीजन !
जब धरती से खत्म हो गया था ऑक्सीजन !

धरती पर एक समय ऑक्सीजन एकदम खत्म हो गया था. इतना भी नहीं था कि कोई जीव 2 मिनट भी जिंदा रह सके. धरती पर ऑक्सीजन बनने की प्रक्रिया जितनी सोची गई थी, उससे 10 करोड़ साल पुरानी है लेकिन एक समय ऐसा था जब धरती से ऑक्सीजन गैस पूरी तरह से खत्म हो गई थी. ये खुलासा किया है रूस, कनाडा, स्वीडन, साउथ अफ्रीका, अमेरिका के साइंटिस्ट्स के समूह ने. जानते हैं कि धरती से ऑक्सीजन कब खत्म हुआ था, फिर से कैसे बना और ये सब होने में इसे कितने साल लगे.

धरती पर स्थाई रूप से ऑक्सीजन के टिकने की कहानी जितने साल पहले सोची गई थी, उससे 10 करोड़ साल आगे तक बात पहुंच गई है. अब शुरू करते हैं धरती पर ऑक्सीजन की कहानी. ये बात 450 करोड़ साल पुरानी है, जब धरती के वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा शून्य थी लेकिन आज से 243 करोड़ साल कुछ ऐसा हुआ जिससे वायुमंडल में ऑक्सीजन का मात्रा बढ़ने लगी.

ऑक्सीजन आने की वजह से पर्यावरण में बदलाव होने लगा. कई स्थानों पर ठंडक बढ़ी तो बर्फ जमने लगी. बड़े-बड़े ग्लेशियर बनने लगे. कुछ ही लाख सालों में पूरी धरती पर हिमयुग आ गया. चारों तरफ बर्फ ही बर्फ जमा हो गई. वैज्ञानिकों ने जब 232 करोड़ साल पुराने पत्थरों में मौजूद रसायन की जांच की तो पता चला कि ऑक्सीजन उस समय धरती पर थी.

लेकिन अब एक नई स्टडी सामने आई है, जो ये कहती हैं कि 232 करोड़ साल पहले से लेकर 222 करोड़ साल तक ऑक्सीजन की मात्रा अत्यधिक कम और ज्यादा होती रही यानी ये स्थाई नहीं थी. आखिरकार एक ऐसा मौका आया जब धरती ऑक्सीजन के मामले में एक स्थाई स्तर पर पहुंच गई. ये नई रिसर्च प्रसिद्ध साइंस मैगजीन नेचर में प्रकाशित हुई है.

कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के जियोलॉजिस्ट एंड्री बेकर ने कहा कि ये पूरी प्रक्रिया बेहद जटिल रही है. यहां तक कि बदलते समय की गणना भी बहुत मुश्किल से हुई है. धरती पर ऑक्सीजन का बनना शुरु हुआ समुद्री साइनोबैक्टीरिया (Cyanobacteria) से. ये बैक्टीरिया फोटोसिंथेसिस के जरिए ऊर्जा उत्पन्न करता है. इस प्रक्रिया को ग्रेट ऑक्सीडेशन इवेंट (Great Oxidation Event) यानी ऑक्सीकरण होना शुरू हो गया था. फोटोसिंथेसिंस में मुख्य बाइप्रोडक्ट ऑक्सीजन होता है.

इस प्रक्रिया के सबूत आज भी समुद्र के अंदर मौजूद सेडीमेंट्री रॉक्स में मिल जाएंगे. ये ऐसी चट्टानें होती हैं जो ऑर्गेनिक पदार्थों और खनिजों के परत-दर-परत मिश्रण से बनी होती हैं. जब किसी वायुमंडल में ऑक्सीजन नहीं होता तब उस समय के पत्थरों में सल्फर के अवयवों की मात्रा ज्यादा मिलती है. लेकिन जब ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ती है तो पत्थरों में सल्फर और उसके अवयवों की मात्रा कम हो जाती है.

बेकर और उनके साथियों ने लंबे समय तक का अध्ययन किया. इसके बाद उन्हें पता चला कि धरती पर ऑक्सीजन की मात्रा तीन बार बहुत कम हुई है. इस वजह से 250 करोड़ साल से लेकर 220 करोड़ साल के बीच में तीन बार ग्लेशियर बने और पिघले. लेकिन चौथी और पांचवीं (अंतिम बार) जो ग्लेशियर बने उनमें ऑक्सीजन का स्तर तेजी से बढ़ा. यही ऑक्सीजन आजतक धरती पर मौजूद है, जिसे इंसान आजकल प्रदूषण के चलते कम कर रहा है.

बेकर ने कहा कि हम शुरुआत में बहुत कन्फ्यूज हुए क्योंकि तीन ग्लेशयर बनने की प्रक्रिया तो आपस में संबंधित थी. लेकिन चौथी बार के बाद की प्रक्रिया और जटिल हो गई. ये एकदम स्वतंत्र यानी अलग प्रक्रिया थी. इसके बाद वैज्ञानिकों ने दक्षिण अफ्रीका के पत्थरों की जांच करनी शुरू की क्योंकि यहां के पत्थर बाकी सेडीमेंट्री रॉक्स की तुलना में युवा थे. ये 220 करोड़ साल पुराने थे.

बेकर ने बताया कि शुरुआती समय में वायुमंडल में ऑक्सीजन की मात्रा में लगातार बदलाव हो रहा था. ये बेहद असंतुलित था. ये अचानक से बहुत ज्यादा हो जाता था, फिर अचानक से एकदम न्यूनतम स्तर पर पहुंच जाता था. इसके बाद हमने मीथेन की स्टडी करनी शुरू की. मीथेन एक ऐसा ग्रीनहाउस गैस है जो अपने अंदर गर्मी और कार्बन डाईऑक्साइड को जकड़ कर रखता है. आज की तारीख में कार्बन डाईऑक्साइड की तुलना में मीथेन ग्लोबल वार्मिंग में छोटा-सा किरदार निभाता है.

जब ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने लगी तो मीथेन वायुमंडल से कम होने लगा जबकि, कार्बन डाईऑक्साइड टिका रहा. ये सैकड़ों सालों तक बनता बिगड़ता रहा. उस समय ऑक्सीजन कभी बहुत कम होता था तो कभी बहुत ज्यादा. इसलिए इस प्रक्रिया को लेकर अंत में जो नतीजा निकला वो ये था कि साइनोबैक्टीरिया ने ऑक्सीजन बनाना शुरू किया. ऑक्सीजन ने मीथेन को खत्म किया और कार्बन डाईऑक्साइड बनने लगा.

धरती पर उस समय कार्बन डाईऑक्साइड इतना नहीं था कि वो धरती के वायुमंडल को गर्म करे इसलिए धरती धीरे-धीरे ठंडी होने लगी. धरती पर बर्फ जमने लगी, ग्लेशियर फैलने लगे और सर्दी आने लगी. फिर इस ग्लेशियर और सर्दी को कम करने के लिए धरती के अंदर से गर्म लावा ज्वालामुखियों से निकलने लगा. धरती गर्म होने लगी. ज्वालामुखियों से मीथेन गैस निकलने लगी. इसकी वजह से धरती के वायुमंडल में जीवन के लिए उपयुक्त गैसें बनने लगीं.

फिर बारिश होनी शुरू हुई. बारिश की बूंदों के साथ कार्बन डाईऑक्साइड का रिएक्शन होना शुरू हुआ. इससे कार्बनिक एसिड बनने लगा. इससे पत्थर पिघलने लगे. इनसे pH न्यूट्रल रेनवाटर बनने लगा. तेजी से पिघलते पत्थरों की वजह से धरती पर न्यूट्रीएंट यानी पोषक तत्व मिलने लगे. समुद्र में फॉस्फोरस की मात्रा बढ़ने लगी. 200 करोड़ साल पहले इन्हीं पोषक तत्वों और ऑक्सीजन की वजह से समुद्री जीव जैसे साइनोबैक्टीरिया तेजी से उत्पादन करने लगे थे.

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