ये कई सालों पहले की बात है. हजारों सालों पहले की. एक चिड़िया जंगल की सुरक्षा छोड़कर हमारे आसपास फिरने-फुदकने लगी. पेड़ों की घनी छांव से ज्यादा उसे हमारे घर भले लगते थे. वो हमारे घर में छूटे हुए किसी मोखल या ताखे में अपना घर बना लेती. हमारे ही इर्द-गिर्द फुदकती रहती. हमारी अलगनियों पर सूखते कपड़ों के बीच अक्सर ही वो भी बैठकर अपने लड़ाई-झगड़े भी सुलझाती. उस पक्षी के गीत हमारे जीवन में इस कदर रच-बस गए कि हम उसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते. फिर कुछ ऐसा हुआ कि उस पक्षी के गीत सुनाई पड़ने कम हो गए.
बात गौरेया या हाउस स्पैरो की हो रही है. आज विश्व गौरेया दिवस है. छोटी सी, चंचल. हर तरफ अपनी चिउं-चिउं के साथ फुकदकने वाली यह अनोखी चिड़िया है. हजारों साल पहले उसने इंसान के साथ जीना सीखा. तब हमारे घर एक मंजिला या दो मंजिला हुआ करते थे. खपरैल वाले या फूस वाले होते थे. बर्तन घर के बाहर धुला करते थे. घर के आसपास किचन गार्डन हुआ करता था. घर की छत पर लौकी या कद्दू या अंगूर की बेल चढ़ी होती थी. आसपास घास की कमी नहीं थी.
चिड़ियां हमारे घरों के इन्हीं स्ट्रक्चर में अपना घर बना लेती थी. उसे बस एक छोटे से मोखल की जरूरत थी. हमारे घर उसे शिकारियों से बचाते थे. यूं तो गौरेया बीज और अन्न खाती है लेकिन, उसे अपने बच्चों को बड़ा करने के लिए ज्यादा प्रोटीन वाली डाइट देनी पड़ती है. इसके लिए वो छोटे-छोटे कीड़े और उनके लारवे बच्चों को खिलाती है. हमारे किचन गार्डन और हमारे घर पर चढ़ी बेलों से उन्हें पर्याप्त मात्रा में ये कीड़े और लारवे मिल जाते थे. हमारे आसपास उगी हुई घास से वे अपने घोसले को आरामदायक बनाती थी. सदियों से हमारे साथ उनका यह याराना चलता रहा.
आप शायद इस बात से वाकिफ हों कि अपने स्वच्छंद वातावरण में पक्षियों को देखना, उनके गीत सुनना बहुत बड़ा मूड बूस्टर होता है. वे हमें जीने का उत्साह देती हैं. इंसानों को हमेशा से ही उनका साथ पसंद रहा है. मैं अपनी बात करूं तो बचपन में हम गौरेया को चिड़ियां ही कहकर बुलाया करते थे. हमारे लिए चिड़ियां का पर्याय ही गौरेया हुआ करती थी. लेकिन, फिर कुछ ऐसा हुआ कि इनकी संख्या कम होने लगी.
आधुनिक जीवन के तरीकों ने हमारे घरों के डिजाइन में बदलाव किया. अब घरों में ताखे-मोखे खतम हो गए. हम अपने घरों को एसी के ज्यादा से ज्यादा अनुकूल बनाते हैं. कहीं से धूप और हवा घुस नहीं आए. मल्टी स्टोरी घरों में कहीं से भी आवाजाही की जरा भी जगह नहीं है, गौरेया घोसला बनाए भी तो कहां ?
हमारे घरों के आसपास किचन गार्डन नहीं है. खेतों में ढेरों कीटनाशक इस्तेमाल किए जाते हैं. गौरेया को अपने बच्चों की डाइट के लिए कीड़े नहीं मिल पाते. वे अपने बच्चों को खिलाए क्या ? नतीजा यह हुआ है कि गौरेया की संख्या में कमी आ रही है. स्टेट ऑफ इंडिया बर्ड रिपोर्ट 2020 के मुताबिक दिल्ली, मुंबई, हैदराबाद, कोलकाता, चेन्नई और बेंगलुरू जैसे मेगा सिटीज के अर्बन सेंटर में इनकी संख्या में कमी आई है. हालांकि, छोटे शहरों और गांवों में इनकी आबादी अभी भी खूब फल-फूल रही है.
गौरेया के संरक्षण की तरफ ध्यान दिलाने के लिए उसे दिल्ली का राज्य पक्षी घोषित किया गया था. यहां पर आपको सालों हो जाएंगे और हो सकता है कि एक भी गौरेया नहीं दिखे. ऐसा लगेगा कि इंसानी आबादी में कुछ मिसिंग है. उनकी गैर-मौजूदगी में इंसानी लैंडस्केप पूरा नहीं होता. हमारे जीवन के चित्र अधूरे रह जाते हैं.
अच्छी बात यह है कि गौरेया की प्रजनन क्षमता में किसी भी प्रकार की कोई कमी नहीं आई है.
बस अगर उन्हें कुछ घर मुहैया करा दिया जाए और आप अपने गमलों और किचन गार्डन में कीटनाशक डालना बंद कर दें और कीड़ों से घृणा न करें, तो गौरेया फिर से आपके आसपास फुदकती हुई दिख सकती है. कीटों की तादाद पर लगाम लगाने का काम चिड़ियां ही कर देगी. कीटनाशक की जरूरत नहीं रहेगी. इस प्रयोग को काफी सफलता भी मिली है और गौरेया के लिए तमाम शानदार डिजाइन के घोसले भी मौजूद हैं.
- कबीर संजय