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ऑक्सीजन की खोज कैसे हुई ?

ऑक्सीजन की खोज कैसे हुई ?
ऑक्सीजन की खोज कैसे हुई ?

ऑक्सीजन की खोज का श्रेय प्राय: दो व्यक्तियों को संयुक्त रूप से दिया जाता है – कार्ल विल्हेल्म शीले और जोसेफ प्रिस्टले. वैसे अन्य साहित्य पढ़कर तो लगता है कि ऑक्सीजन की खोज इन दोनों से सदियों पहले की जा चुकी थी. अलबत्ता, यहां इन दोनों की चर्चा करने के बाद इस मुद्दे पर भी थोड़ी बात करेंगे कि किसी चीज़ की खोज करने का क्या अर्थ होता है ? ऑक्सीजन के सन्दर्भ में यह सवाल बहुत अहमियत रखता है.

यह तो हम देख ही चुके हैं कि वायु का तात्त्विक रुतबा छिन चुका था और वह एक मिश्रण साबित हो चुकी थी. गैसें भी पदार्थ की श्रेणी में आ चुकी थी और गैसों को इकट्ठा करके उन पर प्रयोग करने की व्यवस्था बन चुकी थी. 1727 में स्टीफन हेल्स ने इसका एक जुगाड़ तैयार कर लिया था. इस जुगाड़ की मदद से वे उन गैसों को इकट्ठा कर पाते थे, जो ठोस पदार्थों को गर्म करने पर बनती हैं. इसके लिए वे एक पानी भरे बर्तन को पानी में उल्टा टांग देते थे और गैसों को पानी के विस्थापन से इकट्ठा करते थे.

ऑक्सीजन गैस के बारे में जानकारी –

  1. ऑक्सीजन (Oxygen) के प्राणवायु के अलावा कई उपयोग भी है. वैल्डिंग मशीनों में ऑक्सीजन को एसिटिलीन गैस के साथ उपयोग किया जाता है. लोहा काटने में भी ऑक्सीजन का उपयोग होता है.
  2. मोटी चट्टानों को तोड़ने के लिए ऑक्सीजन का उपयोग किया जाता है.
  3. ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के परमाणु मिलकर पानी के अणु का निर्माण करते है.
  4. ऑक्सीजन धरती पर सबसे ज्यादा पाया जाने वाला तीसरा तत्व है. पहला हाइड्रोजन है और दूसरा हीलियम है.
  5. मानव शरीर को ऑक्सीजन ना मिलने से शरीर के अंग किडनी, फेफड़े, दिल इत्यादि डैमेज हो जाते है. ऑक्सीजन की पूर्ती पानी से होती है इसलिए हमें भरपूर पानी पीना चाहिए.
  6. लोहे पर जंग लगने में ऑक्सीजन मुख्य कारक है. ऑक्सीजन की क्रिया किसी भी धातु से करने पर दहन होता है.
  7. धरती पर अगर ऑक्सीजन खत्म हो जाये तो दुनिया में जीवन समाप्त हो जाएगा. धरती पर अंधकार छा जाएगा इसलिए ऑक्सीजन अति आवश्यक तत्व है. अगर आज के मुकाबले ऑक्सीजन धरती पर दुगनी मात्रा में हो जाये तो कीड़ों का आकार बहुत बड़ा हो जाएगा.
  8. ऑक्सीजन का उपयोग कृतिम रूप से अस्पताल, हवाई जहाज इत्यादि जगहों पर किया जाता है. ऑक्सीजन को सिलिंडर में भरकर रखा जाता है.
  9. ऑक्सीजन (Oxygen) की धरती पर उपस्थिति अनिवार्य है. बिना ऑक्सीजन के प्राण नही बचेंगे इसलिए इसे प्राणवायु भी कहते है.

इसके बाद 1765 में एक अंग्रेज़ डॉक्टर विलियम ब्राउनरिग ने एक ज़्यादा नफीस उपकरण बनाया – एक बेलनाकार मंच जिसके बीचों बीच एक छेद था. इसके ऊपर पानी भरे फ्लास्क को उल्टा रखकर गैस एकत्रित की जा सकती थी. यह पहला न्यूमेटिक ट्रफ था. इसकी विशेषता यह थी कि इसकी मदद से गैस को एक पात्र से दूसरे पात्र में स्थानान्तरित भी किया जा सकता था.

इस समय तक यह भी स्पष्ट हो चुका था कि श्वसन और दहन के अलावा जंग लगने में भी हवा का वही हिस्सा मददगार होता है. गैसें रसायनज्ञों के कौतूहल का विषय बन चुकी थी और कई लोग गैसें बनाकर उनके गुणधर्मों का अध्ययन करने में भिड़े हुए थे. उस समय इन्हें गैस नहीं बल्कि ‘वायु’ ही कहते थे.

कार्ल शीले की अग्नि वायु

कार्ल विलहेल्म शीले स्वीडन के रहने वाले थे. 1772 में शीले ने कई सारे यौगिकों को गर्म करके देखा था. इनमें मैगनीज ऑक्साइड, पोटेशियम नाइट्रेट वगैरह थे. इन्हें गर्म करने पर एक गैस निकली. इस गैस में वस्तुएं ज़्यादा तेज़ी से जलती थी. जन्तु भी इस गैस में ज़्यादा देर तक जीवित रहते थे. ज़ाहिर है, शीले ने ऑक्सीजन खोज की थी मगर उन्होंने इसे ‘अग्नि वायु’ (फायर एयर) नाम दिया और यही माना कि यह फ्लॉजिस्टन-रहित वायु है. यहां एक रोचक तथ्य यह है कि शीले ने कई प्रयोग किए, अपने अवलोकनों को व्यवस्थित ढंग से रिकॉर्ड भी किया, मगर प्रकाशित नहीं किया. इस सन्दर्भ में कुछ लोग मानते हैं कि उनका प्रकाशक ढीला-ढाला, लेट लतीफ था.

प्रिस्टले – फ्लॉजिस्टन-रहित वायु

जोसेफ प्रिस्टले एक अंग्रेज़ वैज्ञानिक थे. उनकी रुचि गैसों के अध्ययन में थी. खास तौर से हवा में उपस्थित गैसों का अध्ययन उनकी दिलचस्पी का विषय था. उन्होंने भी देखा था कि हवा का कुछ भाग ही जलने में सहायक है. प्रिस्टले के शब्दों में –

‘मेरा मत है कि शायद ही ऐसी कोई अन्य दार्शनिक स्थापना होगी जो मस्तिष्क पर इतनी हावी हो गई हो, जितनी यह है कि वायुमण्डलीय हवा … एक सरल तात्त्विक पदार्थ है, जो अनश्वर और अ-परिवर्तनीय है. अलबत्ता, मेरी अपनी खोजबीन के दौरान मैं जल्दी ही इस बात का कायल हो गया कि हवा एक अपरिवर्तनीय वस्तु नहीं है; क्योंकि चीज़ों के जलने, जन्तुओं के सांस लेने और विभिन्न अन्य रासायनिक प्रक्रियाओं के चलते यह फ्लॉजिस्टन से भर जाती है जो इसे दहन, श्वसन वगैरह के अयोग्य बना देता है.

और मैंने खोजा कि पानी में विडोलन या वनस्पति का सम्पर्क फ्लॉजिस्टन को हटा देते हैं और हवा की मूल शुद्धता बहाल हो जाती है. मगर मैं मानता हूं कि मुझे इस बात का कदापि अन्दाज़ नहीं था कि इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाकर सर्वोत्तम साधारण हवा से भी बेहतर हवा प्राप्त की जा सकती है. वास्तव में, मैं यह कल्पना तो कर सकता था कि यह वह हवा होगी जिसमें वायुमण्डलीय हवा से भी कम फ्लॉजिस्टन होगा; मगर मुझे तनिक भी अन्दाज़ नहीं था कि ऐसा संघटन सचमुच सम्भव है.’

अर्थात्, वे मानते थे कि जलने वाली वस्तु में से और जन्तुओं की सांस के साथ फ्लॉजिस्टन निकलता है और हवा को संतृप्त कर देता है, तब वह हवा दहन या श्वसन के अनुपयुक्त हो जाती है. इसके साथ ही उन्होंने यह भी देखा था कि कुछ कैल्क्स (भस्म) को गर्म करने पर एक वायु उत्पन्न होती है, जो जलने में साधारण वायु से ज़्यादा मददगार होती है.

1774 में प्रिस्टले ने पारे के ऑक्साइड (यह नाम आजकल का है; प्रिस्टले के ज़माने में इसे लाल पारद भस्म कहते थे) को गर्म किया. उन्होंने इसे छोटी-सी तश्तरी में रखकर एक बन्द बर्तन में गर्म किया था और गर्म करने के लिए सूरज की किरणों को एक बड़े आतिशी शीशे की मदद से इस पर केन्द्रित किया था. इस तरह से जो ‘वायु’ निकली उसे उन्होंने इकट्ठा कर लिया.

उन्होंने इस वायु में जब एक जलती हुई चीज़ रखी तो वह और भी तेज़ी से जलने लगी. इस वायु में चूहे भी आराम से जीवित रहे और साधारण हवा की अपेक्षा ज़्यादा देर तक जीवित रहे. खुद प्रिस्टले ने भी इस वायु को सूंघकर देखा. उन्होंने अपने एहसास निम्नलिखित शब्दों में व्यक्त किए –

मेरे फेफड़ों में इसकी अनुभूति साधारण वायु से बहुत अलग नहीं थी मगर मुझे सीने में अजीब हल्केपन का एहसास हुआ और बाद में भी अच्छा लगता रहा. कौन जाने कुछ समय बाद यह शुद्ध वायु लक्ज़री की एक फैशनेबल वस्तु बन जाए. फिलहाल मात्र दो चूहों और मुझे ही इस वायु में सांस लेने का अवसर मिला है.

ज़ाहिर है, प्रिस्टले ने जो ‘वायु’ बनाई थी वह ऑक्सीजन थी, मगर उनका मानना था कि उन्होंने फ्लॉजिस्टन-रहित वायु बनाई है. चूंकि इसमें फ्लॉजिस्टन नहीं है, इसलिए यह जलने में ज़्यादा मदद करती है. फ्लॉजिस्टन-रहित होने के कारण यह वायु जलती वस्तु में से निकलते फ्लॉजिस्टन को ज़्यादा मात्रा में घोल पाती है.

तो ऑक्सीजन की खोज किसने की थी ?

शीले ने अपने प्रयोग पहले (1772 में) किए थे मगर उनके परिणाम प्रकाशित करने में ढिलाई बरती. प्रिस्टले ने प्रयोग तो दो वर्ष बाद (1774 में) किए थे मगर प्रकाशन पहले कर दिया था तो इन दोनों में से किसे श्रेय दिया जाए ? दरअसल, ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में पहचानने का काम तो इन दोनों में से किसी ने भी नहीं किया था. ये तो इसे ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ ही मानते थे. इस सवाल का मुकम्मल जवाब तो हमें तभी मिलेगा जब एक अन्य वैज्ञानिक एन्तोन लेवॉज़िए के योगदान को जान लेंगे.

रसायन शास्त्र को ऑक्सीजन आसानी से नहीं मिली है. रसायन शास्त्र का सबसे रोचक अध्याय (या कई रोचक अध्याय) ऑक्सीजन की खोज से जुड़े हैं. एक मायने में आधुनिक रसायन शास्त्र का इतिहास और ऑक्सीजन की खोज का इतिहास पर्यायवाची हो जाते हैं. तो कहानी को आगे बढ़ाते हैं. हम यह तो देख ही चुके हैं कि प्रिस्टले और शीले वह पदार्थ बना चुके थे, जिसे आगे चलकर ऑक्सीजन कहा जाएगा. मगर दोनों ही इसे एक नया तत्व नहीं बल्कि ‘फ्लॉजिस्टन-रहित हवा’ मान रहे थे. इस फ्लॉजिस्टन-रहित हवा से ऑक्सीजन का सफर अब तय करेंगे.

लेवॉज़िए की स्थिर वायु

एन्तोन लेवॉज़िए एक फ्रांसीसी वैज्ञानिक थे. गैसों व दहन के अध्ययन में वे देरी से जुड़े थे मगर देर आयद, दुरुस्त आयद. उन्होंने पहला काम यह किया कि इस विषय का पूरा साहित्य पढ़ा और वे सारे प्रयोग खुद करके देखे जो उनसे पहले वैज्ञानिक कर चुके थे –

मुझसे पहले जो कुछ हुआ है उसे मैं मात्र संकेतकारी मानने को बाध्य हूं. मैं उस सबको नई सावधानियों के साथ दोहराना चाहता हूं ताकि हवा, जो पदार्थों के साथ जुड़ती है या उनमें से निकलती है, के अपने ज्ञान को अन्य अर्जित ज्ञान के साथ जोड़ सकूं और एक सिद्धान्त बना सकूं.

तब 1773 के पूरे साल लेवॉज़िए ने रसायन शास्त्र का इतिहास पढ़ा. खास तौर से उन्होंने उस सबका अध्ययन किया जो 17वीं सदी के बाद से विभिन्न रसायनज्ञों ने हवा या हवाओं के बारे में कहा था, और उनके प्रयोगों को नई सावधानियों के साथ दोहराया. इस प्रक्रिया के निष्कर्ष 1774 में प्रकाशित हुए थे.

उनकी व्याख्या यह थी कि धातु को हवा में गर्म करने पर हवा धातु से जुड़ रही है और यही जुड़ी हुई हवा (‘स्थिर वायु’) वज़न बढ़ने का कारण है. इस निष्कर्ष का मतलब था कि हवा तब वापिस निकल आएगी जब धातु-भस्म का विघटन किया जाएगा. यानी 1774 में लेवॉज़िए का मत था कि वायुमण्डल की ‘स्थिर वायु’ ही धातुओं के जलने व उनके वज़न में वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार थी.

यहां लगता है कि ‘स्थिर वायु’ को लेकर काफी भ्रम की स्थिति थी. यह स्पष्ट नहीं था कि क्या ‘स्थिर वायु’ साधारण वायुमण्डलीय हवा का एक घटक है अथवा कोई अन्य ‘वायु’ है. स्थिर वायु से तात्पर्य था कि वह हवा जो अपनी वायु-प्रकृति गंवा चुकी हो यानी ठोस से जुड़ गई हो. इसे कार्बन डाईऑक्साइड माना जाता है. फिर भी सवाल है कि ऐसा विचित्र निष्कर्ष कैसे निकला ?

कारण यह लगता है कि अधिकांश भस्मों से धातु प्राप्त करने के लिए उन्हें कोयले (कार्बन) के साथ गर्म करना पड़ता था और इस क्रिया में कार्बन डाईऑक्साइड (‘स्थिर वायु’) निकलती है.

भस्म + कार्बन = धातु + स्थिर वायु

तो यह मानना अनुचित नहीं कहा जा सकता कि इससे उल्टी क्रिया भी होती होगी –

धातु + स्थिर वायु = भस्म

तो सबसे पहले लेवॉज़िए ने निष्कर्ष निकाला कि जलने में हवा का जो हिस्सा मददगार होता है, वह स्थिर वायु (कार्बन डाईऑक्साइड) है. विडम्बना देखिए कि कार्बन डाई-ऑक्साइड दरअसल आग को बुझाने में काम आती है, मगर लेवॉज़िए की खूबी यह थी कि वे यहां पहुंचकर रुके नहीं; नए अवलोकनों के प्रकाश में आगे बढ़ने को तत्पर रहे.

ऑक्सीजन की ओर एक कदम

इस मामले में दो वैज्ञानिकों का योगदान महत्वपूर्ण रहा. एक थे औषधि वैज्ञानिक पियरे बेयन. बेयन ने लेवॉज़िए का ध्यान इस तथ्य की ओर आकृष्ट किया कि लाल पारद भस्म को गर्म किया जाए तो वह पारे में बदल जाता है; कोयला मिलाने की ज़रूरत नहीं पड़ती और तो और, इस क्रिया में ‘स्थिर वायु’ भी नहीं निकलती.

इस प्रयोग में दो खास बातें थी. पहली तो यह थी कि पारद भस्म कोयले की मदद के बगैर ही पारे में तबदील हो रहा था. फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के मुताबिक इस प्रक्रिया में कोयला फ्लॉजिस्टन का स्रोत है. अर्थात्, इस प्रयोग के परिणाम के आधार पर फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त सही नहीं हो सकता.

दूसरी बात यह थी कि पारद भस्म से पारा बनाने में ‘स्थिर वायु’ उत्पन्न नहीं हुई. मतलब स्थिर वायु भस्मों का अनिवार्य घटक नहीं है.

लगभग इसी समय (अगस्त 1774 में) 20 हवाओं के मशहूर निर्माता जोसेफ प्रिस्टले ने भी लाल पारद भस्म को तपाया था. इस प्रक्रिया में जो ‘वायु’ निकली वह साधारण हवा की अपेक्षा दहन में ज़्यादा मदद करती थी. इससे भी पहले (1770-71 में) कार्ल विल्हेल्म शीले स्वीडन में विभिन्न ऑक्साइड्स व कार्बोनेट्स को तपाकर ‘अग्नि वायु’ बना चुके थे. मगर शीले अपेक्षाकृत अलग-थलग थे और उनके प्रयोगों की जानकारी उनके अपने देश में ही बहुत फैलती नहीं थी इसलिए इनकी जानकारी तो लेवॉज़िए को नहीं थी.

प्रिस्टले अक्टूबर, 1774 में पेरिस गए थे. वहां उन्होंने अपने प्रयोगों की जानकारी लेवॉज़िए को दी थी. बेयन व प्रिस्टले के अवलोकनों के अलावा खुद लेवॉज़िए ने भी पारद भस्म पर प्रयोग किए थे. इनके आधार पर उन्होंने अपनी परिकल्पना एक बार फिर बदली. 1775 में फ्रांस की विज्ञान अकादमी में प्रस्तुत अपने पर्चे में उन्होंने बताया था कि दहन का तत्व ‘शुद्ध वायु’ है. इसमें भी उन्होंने हवा के किसी विशिष्ट घटक को दहन के लिए ज़िम्मेदार नहीं बताया था.

दूसरी ओर जोसेफ प्रिस्टले को स्पष्ट था कि दहन में मददगार वायु दरअसल ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ है और यह हवा का एक घटक है. प्रिस्टले ने यह बात 1775 में प्रकाशित अपनी पुस्तक में स्पष्ट की थी.

यहां लेवॉज़िए और प्रिस्टले के बीच चली बहस की बात करना मुनासिब होगा क्योंकि उसी बहस में से लेवॉज़िए ने ‘ऑक्सीजन रसायन शास्त्र’ विकसित किया था और आधुनिक रसायन शास्त्र को उसकी बुनियाद प्रदान की थी. सारी बहस का एक दिलचस्प पहलू यह है कि एक समान प्रयोगों और अवलोकनों के बाद दो सर्वथा भिन्न निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं.

अन्तत: (प्रिस्टले की परिकल्पना और स्वयं अपने द्वारा किए गए प्रयोगों के आधार पर) लेवॉज़िए दहन की ऑक्सीजन परिकल्पना तक पहुंचे, मगर उससे पहले उन्होंने काफी हिचकोले खाए. जहां प्रिस्टले का निष्कर्ष था कि जलने, श्वसन वगैरह में मददगार वायु ‘फ्लॉजिस्टन-रहित वायु’ है वहीं लेवॉज़िए इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि वह वायु का एक हिस्सा न होकर पूरी की पूरी हवा है. उनके अनुसार धातु को जब हवा की उपस्थिति में गर्म किया जाता है तो हवा उससे जुड़ जाती है और भस्म बनती है. इसी वजह से धातु से भस्म बनने की क्रिया में वज़न बढ़ता है. जब भस्म को गर्म किया जाता है तो यही हवा वापिस निकलती है जो जलने और श्वसन की दृष्टि से बेहतर होती है.

तो लेवॉज़िए की स्थापना तो बॉयल, दा विंची, रॉबर्ट हुक, मेयोव वगैरह के इस निष्कर्ष के विपरीत है कि हवा का एक घटक ही जलने में सहायक है. आखिर यह विचित्र निष्कर्ष कैसे निकला ? इसका सम्बन्ध एक गम्भीर प्रायोगिक त्रुटि से है.

प्रायोगिक त्रुटि ने ऑक्सीजन की खोज को टाला

ऑक्सीजन की खोज की चर्चा करते हुए इस बात को थोड़ा विस्तार से समझना उपयोगी होगा कि उस समय शोधकर्ता ऑक्सीजन की पहचान और मापन के लिए क्या तरीका अपनाते थे. आखिर जब आप अलग-अलग वायुओं की तुलना करना चाहते हैं, तो मात्र इस आधार पर तो नहीं कर सकते कि मोमबत्ती की लौ कितनी तेज़ रही या जन्तु कितनी देर तक जीवित रहा. जन्तु-जन्तु में फर्क होते हैं इसलिए ऑक्सीजन (या जो भी नाम दें) को पहचानने के लिए प्रिस्टले ने ‘नाइट्रस वायु परीक्षण’ विकसित किया था.

प्रिस्टले ने कुछ ही वर्षों पहले नाइट्रोजन का एक ऑक्साइड बनाया था. यह आजकल की भाषा में नाइट्रिक ऑक्साइड था मगर उस समय इसे ‘नाइट्रस वायु’ कहा जाता था. नाइट्रस वायु पानी में अघुलनशील रंगहीन गैस थी. जब इसे हवा के साथ मिलाया जाता था तो एक लाल गैस बनती थी, जो पानी में घुलनशील होती थी. प्रिस्टले ने पता लगा लिया था कि जिस हवा में मोमबत्ती जलकर बुझ चुकी हो, उसमें नाइट्रस वायु मिलाने से लाल गैस नहीं बनती है. वर्तमान जानकारी के सन्दर्भ में देखें तो रासायनिक क्रिया को निम्नानुसार लिखा जा सकता है –

2NO + O2 => 2NO
नाइट्रस वायु ऑक्सीजन लाल गैस

चूंकि लाल गैस पानी में घुलनशील है, इसलिए यदि इस क्रिया को पानी के ऊपर किया जाएगा तो आयतन में कमी आना लाज़मी है. यदि शुद्ध ऑक्सीजन और नाइट्रस वायु ली जाए तो क्रिया के बाद आयतन शून्य हो जाएगा. साधारण हवा में ऑक्सीजन करीब एक बटा पांच होती है. लिहाज़ा, जब हवा और नाइट्रस वायु को मिलाया जाएगा तो काफी सारी गैस बची रहेगी. प्रिस्टले ने इस क्रिया का उपयोग यह जानने के लिए किया कि हवा कितनी ‘अच्छी’ है.

आयतन में अधिकतम कमी तब होती है, जब 1 इकाई आयतन नाइट्रस वायु को हवा के दो इकाई आयतन के साथ पानी की उपस्थिति में मिलाया जाता था. यानी कुल आयतन हो गया 3 इकाई. ऐसा करने पर कुछ ही मिनटों बाद कुल आयतन सिर्फ 1.8 इकाई रह जाता था. यानी आयतन में कमी नाइट्रस वायु के कुल आयतन और करीब 20 प्रतिशत ज़्यादा के बराबर होती थी. यदि हवा बिलकुल ‘खराब’ हुई तो क्रिया पूरी होने के बाद कुल आयतन नाइट्रस वायु के प्रारम्भिक आयतन और हवा के आयतन के योग के बराबर (3 इकाई) होगा. इन दो परिस्थितियों के बीच हुई आयतन में कमी हवा के ‘अच्छेपन’ का माप बन गई. यह परीक्षण काफी मशहूर था और लगभग सारे रसायनज्ञ इसका उपयोग करते थे.

तो ज़रा इस परीक्षण के उपयोग के परिणामों को देखें. परीक्षण यह है कि जो भी वायु आपके पास है, उसका 2 लीटर लीजिए, उसमें 1 लीटर नाइट्रस वायु मिलाइए. पूरे मिश्रण को पानी के सम्पर्क में रखिए. आयतन में कमी आएगी. यदि आयतन घटकर 1.8 लीटर रह जाए तो वह वायु साधारण हवा जैसी है. वास्तविक प्रयोग में जब शुद्ध ऑक्सीजन (2 लीटर) में 1 लीटर नाइट्रस वायु मिलाई जाती तो शेष आयतन लगभग उतना ही बचता था (करीब 1.6 लीटर) जितना साधारण हवा के साथ बचता है.

मज़ेदार बात यह है कि दोनों मामलों में यह शेष बची गैस अलग-अलग होती थी. जहां हवा के साथ प्रयोग करने पर जो गैस बचती थी, वह नाइट्रोजन होती थी. वहीं शुद्ध ऑक्सीजन के साथ प्रयोग करने पर बची हुई गैस ऑक्सीजन ही होती थी. मगर यदि आप हर बार 2 लीटर वायु लेकर उसमें 1 लीटर नाइट्रस वायु मिलाएंगे, और सिर्फ यह देखेंगे कि बची हुई हवा का आयतन कितना है तो ज़ाहिर है आप गलत निष्कर्ष पर पहुंचेंगे क्योंकि साधारण हवा के साथ प्रयोग में बची हुई गैस का आयतन होगा 1.8 लीटर और शुद्ध ऑक्सीजन के साथ प्रयोग में बची हुई वायु का आयतन होगा 1.6 लीटर. इनमें बहुत ज़्यादा अन्तर नहीं है.

लिहाज़ा, जब प्रिस्टले और लेवॉज़िए ने पारद भस्म या सॉल्टपीटर को गर्म करके वायु बनाई और उस पर नाइट्रस परीक्षण लागू किया तो दोनों ही इस गलत निष्कर्ष पर पहुंचे कि सॉल्टपीटर से जो वायु प्राप्त हुई है, वह साधारण हवा ही है. दोनों ही आयतन में उक्त थोड़े-से फर्क को पकड़ने में असफल रहे थे.

दोनों मामलों में जो प्रमुख अन्तर था वह शेष बची गैस के गुणधर्मों में था. पहले मामले में (यानी साधारण हवा के मामले में) जो वायु शेष रहती है, वह मूलत: नाइट्रोजन है जिसमें थोड़ी-सी नाइट्रस वायु मिली होगी. दूसरे मामले में शेष बची वायु ऑक्सीजन है. यदि इसमें मोमबत्ती जलाने का प्रयास किया जाता तो दूध का दूध, पानी का पानी हो जाता मगर यह बात न तो लेवॉज़िए को सूझी न प्रिस्टले को या शायद थोड़ी और नाइट्रस वायु मिलाई जाती तो भी बात साफ हो जाती.

शुरुआत में दोनों शोधकर्ता गलत रास्ते पर मुड़ गए. इससे साफ है कि विज्ञान की तरक्की के लिए महज़ ‘तथ्य एकत्रित करना, तथ्यों का वर्गीकरण करना, नियम प्रतिपादित करना, और नियमों के आधार पर सिद्धान्त विकसित करना’ पर्याप्त नहीं है. दोनों वैज्ञानिक एक ही गलत मान्यता के चलते गुमराह हुए थे – वह मान्यता थी कि 2 लीटर वायु में 1 लीटर नाइट्रस वायु मिलाने पर आयतन में अधिकतम कमी हो जाती है, इसके आगे प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि इससे ज़्यादा कमी तो होनी नहीं है.

जैसे लेवॉज़िए ने मई 1775 के अपने शोध-पत्र में लिखा था कि ‘पारद भस्म से प्राप्त वायु के साथ एक-तिहाई नाइट्रस वायु मिलाने पर आयतन में उतनी ही कमी हुई जितनी कि साधारण हवा से होती है.’ यानी लेवॉज़िए मानकर चल रहे थे कि पारद भस्म से जो वायु प्राप्त हुई है वह साधारण हवा ही है, शायद थोड़ी अधिक शुद्ध है.

पेरिस के म्यूज़ियम ऑफ आर्ट एंड क्राफ्ट में लेवॉज़िए की प्रयोगशाला की एक बानगी जहां दर्शक लेवॉज़िए के दौर में उपयोग किए जाने वाले गैसोमीटर, कैलोरीमीटर, दर्पण के अलावा लेवॉज़िए के व्यक्तिगत साजो-सामान को देख सकते हैं.

बहरहाल, संयोगवश प्रिस्टले ने दूसरे प्रयोग की शेष बची वायु की जांच करके देखी और कुछ ही माह बाद प्रकाशित अपनी पुस्तक में स्पष्ट किया कि लेवॉज़िए का निष्कर्ष ठीक नहीं है.

यह संयोगवश ही था कि प्रिस्टले ने उक्त प्रयोग को थोड़ा आगे बढ़ाया. प्रिस्टले के शब्दों में –

मैंने देखा कि नाइट्रस वायु और मर्क्यूरियस केल्सिनेटस से प्राप्त वायु का मिश्रण रात भर रखा रहने के बाद (जिसके आयतन में जितनी कमी होनी थी, वह हो चुकी होगी और इसके परिणामस्वरूप वह श्वसन या दहन के लिए पूरी तरह अनुपयुक्त हो जाना चाहिए था), उसमें मोमबत्ती जल सकी और साधारण हवा से बेहतर जल सकी. इतने समय बाद मुझे यह याद नहीं आ रहा है कि मैंने यह प्रयोग करने का विचार क्यों किया था, मगर मुझे इतना याद है कि मुझे इससे कोई खास उम्मीद नहीं थी.

इस तरह के प्रयोग करने में काफी उत्सुकता के चलते हल्की-सी व क्षणिक प्रेरणा भी मुझे प्रयोग करने को उकसा देती है. अलबत्ता, यदि किसी अन्य उद्देश्य से वह जलती हुई मोमबत्ती आसपास न रखी होती, तो शायद मैं कभी यह प्रयोग न करता और इस तरह की वायु को लेकर मेरे भावी प्रयोगों की श्रंखला शायद रुक ही जाती.

उन्होंने पाया कि नाइट्रस वायु के साथ परीक्षण के बाद (यानी आयतन घट जाने के बाद) बची गैस मोमबत्ती के जलने में सहायता करती रहती है. संयोगवश हुई इस खोज के बाद उन्होंने चूहे के साथ प्रयोग किया और देखा कि चूहा उस बची हुई गैस में भलीभांति ज़िन्दा रहता है. अब प्रिस्टले को शक हुआ कि जिस वायु की वे छानबीन कर रहे हैं, वह साधारण हवा से बेहतर ही नहीं, भिन्न भी है.

इसकी जांच के लिए उन्होंने एक प्रयोग किया. उन्होंने कुछ समय तक चूहे को उस वायु में जीने दिया. फिर बची हुई वायु का नाइट्रस वायु परीक्षण किया. पता चला कि कुछ समय तक चूहे द्वारा उपयोग किए जाने के बाद भी यह वायु नाइट्रस वायु से क्रिया करती है और आयतन में कमी पैदा होती है. और तो और, आयतन में यह कमी साधारण वायु की अपेक्षा ज़्यादा होती है.

एक बार जब उन्हें यकीन हो गया कि पारद भस्म से प्राप्त वायु साधारण हवा से बेहतर है, तो उन्होंने ज़्यादा व्यवस्थित प्रयोग शुरू किए. उन्होंने इस वायु की क्रिया नाइट्रस वायु का आयतन बढ़ाते हुए की. उन्होंने पाया कि नवीन वायु के एक आयतन में नाइट्रस वायु साढ़े चार आयतन मिलाने तक आयतन में कमी होती रहती है. गौरतलब है कि साधारण हवा के 2 आयतन में एक आयतन नाइट्रस वायु मिलाने पर आयतन में अधितकम कमी हो जाती थी.

इसके बाद और नाइट्रस वायु मिलाने पर आयतन में कमी नहीं होती थी अर्थात् नवीन वाय़ु साधारण हवा से काफी भिन्न थी. इस बात को समझ लेने पर यह स्पष्ट हो जाना चाहिए था कि उनके हाथ में एक नया तत्व है. मगर प्रिस्टले पूरे प्रयोग को एक अलग ही अवधारणात्मक ढ़ांचे के तहत समझने की कोशिश कर रहे थे.

प्रिस्टले का नज़रिया फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त से जुड़ा था. उनके मुताबिक पारद भस्म को गर्म करने पर वह हवा में उपस्थित फ्लॉजिस्टन को सोख लेता है. अत: हवा में फ्लॉजिस्टन की मात्रा कम नहीं बल्कि खत्म हो जाती है. उनके शब्दों में यह हवा अब फ्लॉजिटन-मुक्त हवा है. चूंकि यह फ्लॉजिस्टन-मुक्त है इसलिए इसमें फ्लॉजिस्टन सोखने की बहुत अधिक क्षमता है. इसलिए यह जलने में साधारण हवा से ज़्यादा मददगार होती है और नाइट्रस वायु के साथ भी ज़्यादा क्रिया करती है. अर्थात् प्रिस्टले के मुताबिक पारद भस्म से प्राप्त वायु कोई नया तत्व नहीं बल्कि फ्लॉजिस्टन-मुक्त हवा थी.

‘अब इस नई किस्म की वायु की प्रकृति – कि यह नाइट्रस वायु से ज़्यादा मात्रा में फ्लॉजिस्टन ग्रहण कर सकती है और इसका मतलब है कि इसमें मूलत: इस तत्व की मात्रा कम रही होगी – को लेकर पूरी तरह सन्तुष्ट होने के बाद मेरा अगला सवाल यह था कि किस तरह से यह इतनी शुद्ध हुई है या दूसरे शब्दों में यह इतनी फ्लॉजिस्टन-विहीन कैसे हुई.’

प्रिस्टले के प्रयोग की बात लेवॉज़िए तक भी पहुंच चुकी थी. इसके मद्देनज़र उन्होंने अपने प्रयोग एक बार दोहराए और सर्वथा अलग निष्कर्ष पर पहुंचे. वे जिस निष्कर्ष पर पहुंचे वह क्रान्तिकारी साबित हुआ, उसने आधुनिक रसायन शास्त्र की नींव रखने का काम किया.

चलिए अब लेवॉज़िए की तर्क श्रृंखला को देखते हैं. उन्होंने 1775 में फ्रांसीसी विज्ञान अकादमी के समक्ष अपना पर्चा प्रस्तुत किया, जिसका नाम था – ‘ऑन दी नेचर ऑफ दी प्रिंसिपल विच कम्बाइन्स विद मेटल्स ड्यूरिंग केल्सिनेशन एण्ड इन्क्रीज़िज़ देयर वेट’ यानी ‘वह तत्व जो भस्मीकरण के दौरान धातुओं से जुड़ता है और उनका वज़न बढ़ाता है.’ लेवॉज़िए की तर्क श्रृंखला को समझने में एक रोचक तथ्य से मदद मिली है.

1775 में जब उन्होंने यह पर्चा प्रस्तुत किया तो इसे एक अनाधिकृत शोध पत्रिका में तुरन्त प्रकाशित किया गया था. आम तौर पर ऐसा होता था कि वही पर्चा बाद में अधिकारिक शोध पत्रिका में छापा जाता था. इन दो के बीच काफी समय बीतता था और लेखक को मौका मिल जाता था कि वह अधिकारिक प्रकाशन से पूर्व अपने पर्चे में फेरबदल कर सके. लेवॉज़िए का 1775 में प्रस्तुत पर्चा अधिकारिक रूप से 1778 में प्रकाशित हुआ था और इसमें उन्होंने कई महत्वपूर्ण परिवर्तन किए थे. इन्हें देखकर विज्ञान के इतिहासकारों ने उनके तर्क के विकास को समझने का प्रयास किया है.

प्रथम पर्चे में लगता है कि लेवॉज़िए यह मानकर चल रहे थे कि पारद भस्म को गर्म करके जो गैस बनी है वह सामान्य हवा ही है. मगर बाद में उन्होंने ध्यान दिया था कि यह गैस साधारण हवा से काफी बेहतर है. उपरोक्त दो पर्चों में अन्तर को एक ही वक्तव्य के दो संस्करणों की तुलना करके देखा जा सकता है –

1775

‘भस्मीकरण (केल्सिनेशन) के दौरान जो तत्व धातुओं से जुड़ता है और उनका वज़न बढ़ाता है और जो भस्मों का एक घटक है वह हवा का कोई अंश नहीं है, न ही हवा में फैला कोई अम्ल है, बल्कि वह हवा ही है, सम्पूर्ण और बगैर किसी फेरबदल के, बगैर विघटित हुए; यहां तक कि इस तरह जुड़ जाने के बाद जब उसे मुक्त किया जाता है, तो यह वायुमण्डलीय हवा से ज़्यादा शुद्ध, ज़्यादा श्वसन-योग्य होकर निकलती है और यह ज्वलन व दहन को सहारा देने में ज़्यादा उपयुक्त होती है.’

1778

‘भस्मीकरण (केल्सिनेशन) के दौरान जो तत्व धातुओं से जुड़ता है और उनका वज़न बढ़ाता है और जो भस्मों का एक घटक है वह और कुछ नहीं हवा का ज़्यादा सेहतमन्द और शुद्धतम अंश है, इसलिए धातु के साथ जुड़ने के बाद जब यह फिर से मुक्त होता है, तो यह अत्यन्त श्वसन-योग्य स्थिति में होता है, ज्वलन व दहन को सहारा देने के लिए ज़्यादा उपयुक्त होता है.’

मई 1776 में उन्होंने जन्तु श्वसन पर एक शोध पत्र प्रस्तुत किया था, जिसमें उन्होंने स्पष्ट किया था कि हवा के दो घटक होते हैं – इनमें से एक अत्यन्त श्वसन-योग्य होता है जबकि दूसरा घटक दहन या श्वसन को सहारा नहीं देता. हवा के इस अत्यन्त श्वसन-योग्य भाग को लेवॉज़िए ने ऑक्सीजन नाम दिया.

इस तरह से ऑक्सीजन की खोज पूरी हुई. प्रिस्टले फ्लॉजिस्टन और फ्लॉजिस्टन-मुक्त हवा पर अड़े रहे. लेवॉज़िए ने अपने परिणाम की पुष्टि के लिए जिस तरीके का सहारा लिया, वह भी गौरतलब है. उनका कहना था कि,
‘रसायनशास्त्र वस्तुओं के घटक तत्व पता करने के दो आम तरीके उपलब्ध कराता है: विश्लेषण की विधि और संश्लेषण की विधि.

मसलन, जब पानी को अल्कोहल में मिलाते हैं तो हमें ब्रांडी प्राप्त होती है. तब हमें यह निष्कर्ष निकालने का अधिकार है कि ब्रांडी पानी और अल्कोहल से मिलकर बनी है. यही परिणाम हम विश्लेषण की विधि से भी हासिल कर सकते हैं और इसे रसायन शास्त्र का एक सिद्धान्त माना जाना चाहिए कि इन दोनों किस्मों के प्रमाणों के बिना सन्तोष न किया जाए. वायुमण्डलीय हवा के विश्लेषण में हमें यह फायदा है : इसे वियोजित किया जा सकता है और नए सिरे से बनाया भी जा सकता है.

मैंने करीब 36 घन इंच क्षमता का एक फ्लास्क लिया जिसकी लम्बी गर्दन मुड़ी हुई थी जैसा कि चित्र में दिखाया गया है. इस फ्लास्क को मैंने भट्टी में इस तरह रखा कि इसकी गर्दन का सिरा पारे के नाद में उल्टे रखे एक बेल जार में प्रविष्ट कराया जा सके. फ्लास्क में मैंने 4 औंस शुद्ध पारा रखा और ग्राही (बेल जार) में से सायफन की मदद से हवा निकाल दी ताकि पारे का तल ऊपर चढ़ जाए. बेल जार में पारा जिस ऊंचाई पर था, उसे कागज़ की एक चिप्पी चिपकाकर चिन्हित कर दिया. अब तापमापी व दाबमापी का सही पाठ लेने के बाद मैंने भट्टी में आग जला दी और उसे लगातार 12 दिन तक चालू रखा ताकि पारा लगभग अपने क्वथनांक पर रहे, पहले दिन उल्लेखनीय कुछ भी नहीं हुआ.

हालांकि, पारा उबल नहीं रहा था मगर लगातार वाष्पित हो रहा था और इसने बर्तन (फ्लास्क) की अन्दरूनी सतह को बारीक-बारीक बूंदों से ढ़ंक दिया. ये बारीक बूंदें धीरे-धीरे बड़ी होती थीं और फिर बर्तन के पेन्दे में रखे पारे में टपक जाती थी. दूसरे दिन पारे की सतह पर छोटे-छोटे लाल कण दिखने लगे; अगले 4-5 दिनों में ये कण संख्या व साइज़, दोनों में बढ़ते गए, जिसके बाद दोनों ही लिहाज़ से इनकी वृद्धि रुक गई. बारह दिन पूरे होने पर, यह मानकर कि पारे का और भस्मीकरण नहीं हो रहा है, मैंने आग बुझा दी और बर्तन को ठण्डा होने दिया.

प्रयोग के शुरु में फ्लास्क, उसकी गर्दन तथा बेल जार में कुल मिलाकर करीब 50 घन इंच हवा थी. उसी तापमान व दबाव पर प्रयोग के अन्त में 42-43 घन इंच हवा शेष रही थी यानी हवा के आयतन में 1/6 (छठवें भाग) की कमी आई थी. जब प्रयोग में बने सारे लाल कणों को इकट्ठा करके तोला गया तो उनका वज़न 45 ग्रेन निकला.

मुझे यह प्रयोग कई बार दोहराना पड़ा क्योंकि एक बार करने पर यह बहुत मुश्किल होता है कि हवा को पूरी तरह सुरक्षित रखा जा सके और सारे लाल कण यानी पारद भस्म को इकट्ठा किया जा सके. पारे के भस्मीकरण के बाद जो हवा शेष बची वह शुरु में ली गई हवा की 5/6 भाग थी और श्वसन या दहन के लिए उपयुक्त नहीं रह गई थी. इसमें जन्तुओं को छोड़ने पर चन्द सेकंडों में ही उनका दम घुट जाता था. जलती हुई मोमबत्ती को इसमें ले जाने पर वह ऐसे बुझ जाती थी, जैसे कि पानी में डुबा दिया गया हो.

इस प्रयोग के साथ ही हवा का विश्लेषण पूरा हुआ. पारे की मदद से 50 घन इंच हवा का पृथक्करण हुआ और 42-43 घन इंच श्वसन व दहन के अयोग्य हवा बची जबकि 7-8 घन इंच हवा पारे से जुड़ी.’

इसके बाद लेवॉज़िए ने पारद भस्म (45 ग्रेन) को गर्म किया. इससे इन्हें 7-8 घन इंच गैसें प्राप्त हुईं और 41.5 ग्रेन पारा बचा अर्थात् इस 7-8 घन इंच गैस का वज़न 3.5 ग्रेन होना चाहिए. इस आधार पर इसका घनत्व 3.5 ग्रेन/7 घन इंच से 3.5 ग्रेन/8 घन इंच के बीच होगा – 0.5-0.44 ग्रेन प्रति घन इंच.

लेवॉज़िए के शब्दों में, ‘वायुमण्डलीय हवा दो गैसों से मिलकर बनी है जिनके गुण अलग-अलग व परस्पर विपरीत हैं. इस महत्वपूर्ण सत्य का प्रमाण यह है कि यदि हम उपरोक्त प्रयोग में अलग-अलग हो गई गैसों – यानी 42 घन इंच मेफिटिक वायु और 8 घन इंच श्वसन-योग्य वायु – को फिर से मिला दें, तो हमें ठीक वायुमण्डलीय हवा जैसी हवा मिल जाती है.’ यह संश्लेषण का प्रमाण है.

अब लेवॉज़िए के सामने एक ही काम बचा था. समस्त रासायनिक क्रियाओं को ऑक्सीजन के परिप्रेक्ष्य में व्यक्त करना. जैसे 1766 में अंग्रेज़ वैज्ञानिक हेनरी केवेंडिश ने लोहे पर तनु गंधक-अम्ल की क्रिया से ‘ज्वलनशील वायु’ बना ली थी. आजकल की भाषा में इसे हम हाइड्रोजन कहते हैं. यह गैस हवा में जलाने पर जल उठती थी. लेवॉज़िए के हिसाब से तो जलने का मतलब था ऑक्सीजन से जुड़ना. उनके लिए बहुत ज़रूरी था कि ज्वलनशील वायु के जलने की व्याख्या ऑक्सीजन सिद्धान्त के अन्तर्गत करें. कैसे ?

जैसे कि उम्मीद की जानी चाहिए, प्रिस्टले ने भी इस ‘ज्वलनशील वायु’ पर प्रयोग किए थे. उन्होंने देखा था कि जब एक बन्द बर्तन मे ज्वलनशील गैस और सामान्य हवा को भरकर एक चिंगारी की मदद से जलाया जाता है, तो बर्तन की दीवार पर ओस जमा हो जाती है. जब केवेंडिश ने इस प्रयोग को दोहराया तो उन्होंने पाया कि यह ओस पानी ही है. केवेंडिश ने इस पूरे प्रयोग की व्याख्या फ्लॉजिस्टन सिद्धान्त के तहत की. उन्होंने अटकल लगाई कि जलने से पहले दोनों वायुओं में पानी उपस्थित था. बल्कि केवेंडिश ने तो यह तक कहा कि ‘ज्वलनशील वायु’ के रूप में उन्होंने साकार फ्लॉजिस्टन खोज लिया है.

दूसरी ओर, लेवॉज़िए का मत था कि ‘ज्वलनशील वायु’ ऑक्सीजन से क्रिया करके पानी बनाती है. उनका निष्कर्ष था कि पानी भी कोई तत्व नहीं है बल्कि ‘ज्वलनशील वायु’ और ऑक्सीजन का यौगिक है. गौरतलब है कि ऑक्सीजन की खोज करते-करते पंचतत्वों में से तीन तो अपनी तात्विक हैसियत गंवा चुके हैं – वायु (जिसे एक मिश्रण साबित कर दिया गया है), जल (जिसे अब यौगिक दर्शा दिया गया है) और अग्नि.

खैर, बड़ी-बड़ी बातें छोड़कर यह देखें कि ऑक्सीजन का क्या हुआ ? लेवॉज़िए की धारणा थी कि ज्वलनशील वायु और ऑक्सीजन की क्रिया से पानी बन जाता है और उन्होंने इसका प्रमाण प्रस्तुत किया, पानी के अपघटन से ज्वलनशील वायु बनाकर. यह तो पता ही था कि जब किसी धातु को अम्ल के घोल में डाला जाता है तो नमक और ज्वलनशील वायु बनती है –

धातु + अम्ल + पानी =लवण + ज्वलनशील वायु

केवेंडिश तो ज्वलनशील वायु को फ्लॉजिस्टन मानते थे. उनके अनुसार
धातु (भस्म + फ्लॉजिस्टन) + अम्ल अ पानी = लवण (भस्म + अम्ल) + ज्वलनशील वायु (फ्लॉजिस्टन)

अब चूंकि पानी का संघटन पता चल चुका था, लेवॉज़िए ने इसी क्रिया की एक अलग व्याख्या प्रस्तुत की –

धातु + अम्ल (ज्वलनशील वायु + ऑक्सीजन) + पानी =लवण (धातु अ अम्ल) + ज्वलनशील वायु

इसके साथ ही ऑक्सीजन की स्थापना पूरी हुई और लेवॉज़िए के मुताबिक वक्त आ गया था कि ‘रसायन शास्त्र को हर उस बाधा से मुक्त किया जाए, जो उसकी प्रगति को रोकती है.’ और लेवॉज़िए इस काम में पूरी शिद्दत से जुट गए. इसमें उनके साथ रहे लुई बर्नार्ड गायटन डी मोर्वो, क्लॉड लुई बर्थोलेट, एन्तोन प्रेंक फोरक्राय.

इन लोगों ने मिलकर नए रसायन शास्त्र के लिए पूरी भाषा गढ़ी क्योंकि लेवॉज़िए मानते थे कि ‘हम किसी विज्ञान की भाषा में तब तक सुधार नहीं कर सकते जब तक कि साथ में स्वयं विज्ञान में सुधार न करें, तथा दूसरी ओर, हम विज्ञान को तब तक सुधार नहीं सकते जब तक कि उससे जुड़ी भाषा या नामकरण को न सुधारें.’

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