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विश्व की मानव प्रजातियां

प्रजाति (race) का तात्पर्य वर्तमान मेधावी मानव की जीव वैज्ञानिक विशेषताओं के आधार पर उसके उस वर्गीकरण से हैं, जिसका प्रत्येक वर्ग वंशानुक्रम के द्वारा शारीरिक लक्षणों में पर्याप्त समानता रखता हैं. किसी प्रजातीय वर्ग जिनमें सभी लोगों के बीच नस्ल या जन्मजात सम्बन्ध पाए जाते हैं और उनके द्वारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनका वहन किया जाता हैं. प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता क्रोबर के अनुसार ‘प्रजाति एक प्रमाणिक प्राणिशास्त्रीय अवधारणा हैं. यह एक समूह है जो वंशानुक्रमण, वश या प्रजातीय गुण अथवा उप-समुह के द्वारा जुडा होता हैं. यह सामाजिक-सांस्कृतिक अवधारणा नही हैं.[1]

प्रजाति की उत्पत्ति तथा विकास के कारक

  1. जलवायुविय परिवर्तन
  2. ग्रंथि रसों का प्रभाव

1. जलवायुविय परिवर्तन

जलवायु प्रदेशों का वितरण

जलवायु किसी स्थान के वातावरण की दशा को व्यक्त करने के लिये प्रयोग किया जाता है. यह शब्द मौसम के काफी करीब है पर जलवायु और मौसम में कुछ अन्तर है. जलवायु बड़े भूखंडों के लिये, बड़े कालखंड के लिये ही प्रयुक्त होता है जबकि मौसम अपेक्षाकृत छोटे कालखंड के लिये छोटे स्थान के लिये प्रयुक्त होता है। पूर्व में पृथ्वी के तापमान के बारे में अनुमान बताते हैं कि यह या तो बहुत अधिक था या फिर बहुत कम.[2]

2. ग्रंथि रसों का प्रभाव

हार्मोन या ग्रन्थिरस या अंत:स्राव जटिल कार्बनिक पदार्थ हैं जो सजीवों में होने वाली विभिन्न जैव-रसायनिक क्रियाओं, वृद्धि एवं विकास, प्रजनन आदि का नियमन तथा नियंत्रण करता है. ये कोशिकाओं तथा ग्रन्थियों से स्रावित होते हैं. हार्मोन साधारणतः अपने उत्पत्ति स्थल से दूर की कोशिकाओं या ऊतकों में कार्य करते हैं इसलिए इन्हें ‘रासायनिक दूत’ भी कहते हैं. इनकी सूक्ष्म मात्रा भी अधिक प्रभावशाली होती है. इन्हें शरीर में अधिक समय तक संचित नहीं रखा जा सकता है. अतः कार्य समाप्ति के बाद ये नष्ट हो जाते हैं एवं उत्सर्जन के द्वारा शरीर से बाहर निकाल दिए जाते हैं. हार्मोन की कमी या अधिकता दोनों ही सजीव में व्यवधान उत्पन्न करती हैं.

शारीरिक लक्षण

  1. त्वचा का रंग
  2. कद
  3. चेहरा
  4. बाल
  5. सिर की बनावट अथवा कपाल सूचकांक
  6. नाक की आकृति तथा नासिका सूचकांक

मानव प्रजातियों का वर्गीकरण

1. काकेसाइड या श्वेत प्रजाति

2. मंगोलायड प्रजाति
3. मलैनेशियन
4. नीग्रोइड्स
5. माइक्रोनेशियन
6. कांगो बेसिन के पिग्मी
7. आस्ट्रेलायड्रस
8. एनु
9. वेडायड
10. हाटेन्टॉट्स

1. काकेसाइड या श्वेत प्रजाति

काकेसाइड या श्वेत प्रजाति, एक मानव प्रजाति हैं. लोगों की त्वचा का रंग गुलाबीपन लिए भूरा, सिर के बाल मुलायम, होठ पतले आदि शारीरिक विशेषतायें पाई जाती है. इनकी उत्पति यूरोप, दक्षिण एवं दक्षिण-पश्चिम एशिया एवं उत्तरी अफ्रीका के सम्मिलित क्षेत्र से माना गया है.

नए अध्ययन बताते हैं कि रेस का त्वचा के रंग से कोई लेना-देना नहीं है. विभिन्न आनुवांशिक और मानवविज्ञान अध्ययनों ने निष्कर्ष निकाला कि तीन मानव जनसंख्या समूह हैं. युआन 2019 में पाया गया कि एंथ्रोपोलॉजिक समूह ‘कॉकसॉइड’ (पश्चिम-यूरेशियन-संबंधित) में विशिष्ट आनुवंशिक लक्षण हैं जो कोकसॉइड जाति की अवधारणा के साथ मेल खाते हैं. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि भारतीय और यूरोपीय निकटता से संबंधित हैं.[3] चेन 2020 को भारतीयों, अरबों, बेरबरों और यूरोपियों के बीच घनिष्ठ संबंध के लिए और सबूत मिले. उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि नई आनुवंशिक सामग्री एक सरल ‘आउट-ऑफ-अफ्रीका प्रवास’ के साथ विरोधाभास में है. वे भारत और मध्य पूर्व के बीच के क्षेत्र में कोकसॉइड जाति के लिए एक मूल का प्रस्ताव करते हैं.[4]

इस प्रजाति के लोग स्कैण्डीनेविया तथा ब्रिटिश द्विप समूह में निवास करते हैं. भारत में आर्यो कि पहचान नॉर्डिक प्रजाति से की जाती है.

अल्पाइन जलवायु उस ऊंचाई की जलवायु को कहते हैं जो वृक्ष रेखा के ऊपर हो. किसी जगह की जलवायु अल्पाइन है तभी कहा जा सकता है जब वहां किसी भी महीने का औसत तापमान 10° सेल्सियस से ऊपर नहीं होता है.

जैसे-जैसे ऊंचाई बढ़ती जाती है, वैसे-वैसे तापमान में गिरावट आती है. इसकी वजह है हवा की गिरावट दर प्रति किलोमीटर ऊंचाई में तापमान 10° सेल्सियस गिरता है.[5] इसकी वजह यह है कि ऊंचाई में हवा ठंडी होती जाती है क्योंकि दबाव कम होने के कारण वह फैलती है.[6] अतः पहाड़ों में 100 मीटर ऊंचा जाना तकरीबन अक्षांश में 80 किलोमीटर ध्रुव की ओर जाने के बराबर होता है,[7] हालांकि यह ताल्लुक महज़ अन्दाज़ा है क्योंकि स्थानीय कारण भी, जैसे समुद्र से स्थान की दूरी इत्यादि, जलवायु को बड़े पैमाने में प्रभावित करते हैं.[8] मुख्य रूप से इन इलाकों में हिमपात ही होता है जो अक्सर तेज़ गति की हवाओं के साथ होता है. अल्पाइन जलवायु वाले पहाड़ी क्षेत्रों में, प्रमुख बायोम अल्पाइन टुण्ड्रा होता है.

भारत, स्पेन, दक्षिणी इटली, उत्तरी अफ्रिका के निवासी हैं.

2. मंगोलायड प्रजाति

मंगोलायड प्रजाति, एक मानव प्रजाति हैं. इस प्रजाति का निवास केवल एशिया महाद्वीप में पाया जाता हैं. इससे सम्बन्धित लोगों की त्वचा का रंग पीला, आंख छोटी, बाल काले भूरे, शरीर पर बालों की एकदम कमी और माथा चौड़ा व इनकी लम्बाई 1.66 मीटर तक होता हैं. इस प्रजाति की सबसे प्रमुख विशेषता इसकी अधखुली आंखें हैं.

ये चार प्रकार की होती है –

3. मलैनेशियन

मॅलानिशियाई प्रशांत महासागर के मॅलानिशिया क्षेत्र के निवासी हैं. वे पॉलिनीशिया क्षेत्र के पड़ोसी हैं लेकिन जहां पॉलिनीशियाई लोगों का रंग ज़रा हल्का होता है, वहीं मॅलानिशियाई लोग अधिकतर कृष्णवर्णीय होते हैं.

इनका विशेष निवास क्षेत्र और जनसंख्या इस प्रकार है –

इतिहासकारों का मानना है कि मॅलानिशिया के मूल निवासी आधुनिक युग में पापुई भाषाओं को बोलने वाले लोगों के पूर्वज थे. यह मूल मॅलानिशियाई लोग कई द्वीपों पर फैले हुए थे जिसमें सोलोमोन द्वीप समूह भी शामिल था.[9] आज से लगभग 4000 साल पूर्व इन मूल निवासियों का ऑस्ट्रोनेशियाई लोगों के साथ सम्पर्क हुआ. माना जाता है कि यह पहला सम्पर्क नया गिनी के उत्तरी तट पर या उस से उत्तर के कुछ द्वीपों पर हुआ. इसके बाद मॅलानिशिया की भाषा, संस्कृति और जाति में कुछ ऑस्ट्रोनेशियाई मिश्रण भी हुआ जो आज के मॅलानिशियाई लोगों में देखा जाता है.[10]

4. नीग्रोइड्स

नीग्रोइड्स प्रजाति, एक मानव प्रजाति हैं. अनेक विद्वान इस प्रजाति को विश्व की प्रथम प्रजाति का दर्जा देतें हैं. इसका निवास क्षेत्र दक्षिणी अफ्रीका से [केप ऑफ गुड होप] तथा सूडान, घाना, मेलेनेशिया, फिजी, पापुआ आदि क्षेत्रों में पाया जाता हैं. यह गहरे भूरे काले रंग वाली प्रजाति हैं एवं इसके बाल ऊन के समान घुंघराले होते हैं.

उप सहारा अफ्रीका में काले लोगों के जनसांख्यिकीय नक्शा

5. माइक्रोनेशियन

माइक्रोनेशियन प्रजाति, एक मानव प्रजाति हैं.

6. कांगो बेसिन के पिग्मी

पिग्मी (Pygmy) ऐसे मानव जातीय समूह को कहते हैं जिसके सदस्यों का औसत क़द असाधारण रूप से कम हो. यह नाम अक्सर मध्य अफ़्रीका में बसने वाली छोटे क़द की जातियों को दिया जाता है, जिनमें अका (Aka), एफ़े (Efé) और म्बूटी (Mbuti) शामिल हैं. इन जातियों में पुरुषों का औसत क़द 150 सेमी (4 फ़ुट 11 इंच) से कम होता है. यदि यह मापदंड बढ़ाकर 155 सेमी (5 फ़ुट 1 इंच) कर दिया जाये तो कुछ अन्य जातियां भी पिग्मी मानी जा सकती हैं, जिनमें ऑस्ट्रेलिया, थाईलैण्ड, मलेशिया, भारत के अण्डमान द्वीप समूह, इण्डोनीशिया, फ़िलिपीन्ज़, पापुआ न्यू गिनी, बोलिविया व ब्राज़ील की कुछ जातियां आती हैं.

अत्यंत छोटे कद के पिग्मी जनजातीय समूह है अफ्रीका के भूमध्य रेखीय वनों में निवास करते हैं.[11]

7. आस्ट्रेलायड्रस

यह लंबे सिर वाली मानव प्रजाति है, जिसका मानव उत्पत्ति क्रम में तीसरा स्थान है. इस प्रजाति का कपाल सूचकांक 72–74 होता है. इसके शारीरिक लक्षणों में चमकदार काला रंग, ऊन के सामान घुंघराले बाल, जबड़ा कुछ आगे की ओर निकला हुआ और नाक मध्यम चौड़ी होती है. इनका शारीरिक कद औसत (160–167 सेमी) पाया जाता है. लगभग 250 वर्ष पूर्व तक ऑस्ट्रेलायड प्रजाति के लोग पूरे ऑस्ट्रेलिया महाद्वीप में फैले हुए थे किंतु वहां यूरोपियनों के पहुंचने पर ये आदिवासी मरुस्थलीय तथा दुर्गम क्षेत्रों की ओर हटते गए. मध्य और दक्षिणी भारत में इस प्रजाति के लोग पाए जाते हैं.

8. एनु या आइनू

आइनू (जापानी: アイヌ) जापान के उत्तरी भाग और रूस के सुदूर पूर्वी भाग में बसने वाली एक जनजाति है. यह होक्काइडो द्वीप, कुरिल द्वीपसमूह और साख़ालिन द्वीप पर रहते हैं. समय के साथ-साथ इन्होंने जापानी लोगों से शादियां कर लीं हैं और उनमें मिश्रित हो चुके हैं.[12] इस वजह से इनकी संख्या का सही अनुमान लगा पाना कठिन है. अंदाज़ा लगाया जाता है कि विश्व में 25,000 से 2,00,000 के बीच आइनू रहते हैं.[13]

आइनुओं का रंग अन्य जापानियों से गोरा होता है और उनके शरीर पर बाल ज़्यादा होते हैं (पुराने ज़माने में आइनू पुरुष अक्सर घनी दाढ़ियां रखा करते थे), इस कारण से कुछ वैज्ञानिकों का कभी यह मानना हुआ करता था कि इनका सम्बन्ध यूरोप के लोगों से है. लेकिन आनुवंशिकी (यानि जॅनॅटिक्स) के अध्ययन से पता चला है कि इनका यूरोपीय लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं. पितृवंश समूह के नज़रिए से यह अधिकतर पितृवंश समूह डी के वंशज पाए गए हैं, जो जापान में काफ़ी पाया जाता है और जापान के बाहर केवल तिब्बत और भारत के अण्डमान द्वीपसमूह में ही अधिक मिलता है.[14]

मातृवंश समूह की दृष्टि से आइनूओं में मातृवंश समूह वाइ, मातृवंश समूह डी, मातृवंश समूह ऍम7ए और मातृवंश समूह जी1 मिलते हैं.[14][15][16] ये सभी पूर्वी एशिया, मध्य एशिया और कुछ हद तक उत्तर और दक्षिण अमेरिका में मिलते हैं. पितृवंश और मातृवंश दोनों ही संकेत देते हैं कि आइनू लोग पूर्वी एशिया के ही क्षेत्र में उत्पन्न हुए हैं.

2001 तक क्रैनियल अध्ययन काकेशियन के लिए रूपात्मक और आनुवंशिक संबंध का सुझाव देते हैं. ये संबंध पुरापाषाण युग से हैं. अध्ययन ने निष्कर्ष निकाला कि ऐनू को ‘यूरेशियन’ के रूप में वर्णित किया जा सकता है.[17]

इशिदा एट अल के अनुसार, 2009 में अधिकांश जोमन दक्षिणी साइबेरिया के कांस्य युग से मिलता जुलता है. इस बात के प्रमाण हैं कि जोमोन यूरेशिया (यूरोप), मध्य एशिया या दक्षिणी साइबेरिया के पश्चिमी आधे भाग में पैलियोलिथिक लोगों की विशेषताओं को बरकरार रखता है.[18] कई अध्ययनों और वैज्ञानिकों (जैसे कि 2015 और 2019 में नोरिको सेगुची) ने निष्कर्ष निकाला है कि जोमोन दक्षिणी साइबेरिया में स्थित पैलियोलिथिक आबादी से आता है. पैलियोलिथिक दक्षिण साइबेरियाई भी पैलियोलिथिक यूरोपीय और मध्य पूर्वी से संबंधित थे.[19][20]

HLA I और HLA II जीन और HLA-A, -B, और -DRB1 जीन आवृत्तियों का आनुवंशिक विश्लेषण Ainu को अमेरिका के स्वदेशी लोगों, विशेष रूप से प्रशांत नॉर्थवेस्ट आबादी जैसे Tlingit से जोड़ता है. वैज्ञानिकों का सुझाव है कि ऐनू और मूल अमेरिकी समूहों के मुख्य पूर्वजों को दक्षिणी साइबेरिया में पैलियोलिथिक समूहों में वापस खोजा जा सकता है.[21]

आइनूओं के विभिन्न समुदाय आइनू भाषा परिवार की विभिन्न भाषाएं बोला करते थे. इन भाषाओं को एक प्राथमिक भाषा परिवार माना जाता है, यानी यह किसी अन्य भाषा परिवार का हिस्सा नहीं है. आधुनिक युग में 100 से भी कम लोग आइनू भाषाओं को अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं. माना जाता है कि आइनू भाषाएं सदा के लिए लुप्त होने के बहुत क़रीब हैं.

पारम्परिक आइनू संस्कृति जापानी लोगों कि संस्कृति से बहुत अलग थी. पुरुष एक आयु के होने के बाद कभी भी दाढ़ी नहीं काटते थे. औरतें और मर्द दोनों अपने बाल कन्धों तक लम्बे रखा करते थे. स्त्रियों में होठों के आसपास गुदवाकर (यानि टैटू कर के) रंगने को शृंगार का रूप माना जाता था. इसका रंग भूर्ज की छाल जलाकर मिली कालिख से बनाया जाता था. स्त्री और पुरुष ऍल्म के वृक्ष की अंदरूनी छाल के रेशों से बने बड़े लपेटने वाले चोग़े पहनते थे.

9. वेडायड

वैदा (सिंहली: වැද්දා, तमिल: வேடுவர், अंग्रेज़ी: Vedda) या वैद्दा श्रीलंका की एक आदिवासी जनजाति है. इतिहासकारों का मानना है कि वे श्रीलंका के सबसे पहले मानव निवासी थे. पारम्परिक तौर से वैदा श्रीलंका के जंगलों के भीतर रहा करते थे. उनकी अपनी अलग वैदा भाषा थी, जिसकी मूल जड़ें अज्ञात हैं और जो अब विलुप्त हो चुकी है. सिंहली भाषा में वैदाओं को वन्नियल ऐत्तो (වන්නියලෑත්තන්, Wanniyala Aetto) भी कहते हैं, जिसका मतलब ‘वन के लोग’ है.

वैदाओं का आनुवंशिकी अध्ययन करने से पता चला है कि वे श्रीलंका के सिंहली लोगों से लगभग 30,000 वर्षों से भिन्न हैं, यानी, वे उनसे एक बिलकुल ही अलग जाति हैं.[22] बहुत से इतिहासकार मानते हैं कि वैदाओं के पूर्वज लगभग 20,000 साल पहले हिमयुग के दौरान भारत से चलकर श्रीलंका पहुंचे थे. हिमयुगों में भारत को श्रीलंका से जोड़ने वाला ‘रामसेतु’ पूरी तरह समुद्र-तल के ऊपर उभरा हुआ एक ज़मीनी पुल होता था, जिसपर चलकर जानवर, मनुष्य और वृक्ष-पौधे एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में आराम से फैल सकते थे. आधुनिक युग में भारत और श्रीलंका के बीच 40 मील का खुला समुद्र है.[23][24][25]

5वीं सदी ईसवी में लिखी श्रीलंका के महावंश इतिहास-काव्य में एक पुलिंद जाति का ज़िक्र है जो इतिहासकारों के अनुसार श्रीलंका के सन्दर्भ में वैदा जाति के बारे में है. यह कहता है कि जब राजकुमार विजय (जो सिंहलों के सबसे पहले राजा बने) छठी शताब्दी ईसापूर्व में बंगाल से श्रीलंका आए तो उन्होंने कुवेनी नामक एक यक्ख (यक्ष) स्त्री से विवाह किया और बच्चे पैदा किये. बाद में उन्होंने एक क्षत्रीय स्त्री से शादी करके कुवेनी को दुत्कार दिया. उसके बच्चे आधुनिक रत्नपुर ज़िले के सुमनकूट क्षेत्र चले गए और वहां उन्होंने अपना वंश बढ़ाया. यही आगे चलकर वैदा बने.[26]

धर्म

वैदाओं का मूल धर्म सर्वात्मवाद (ऐनिमिज़्म​) है. श्रीलंका के भीतरी हिस्सों में बसने वाले वैदा लोगों ने सिंहल लोगों की सोहबत से अपने सर्वात्मवाद में कुछ बौद्ध धर्म को भी मिश्रित कर लिया है जबकि पूर्वी तट पर तमिलों के पास रहने वाले वैदाओं ने सर्वात्मवाद में हिन्दू धर्म मिला लिया है. वैदा अपने पूर्वजों को पूजते हैं जिन्हें सिंहली-भाषी वैदा ‘नाए याकु’ कहते हैं. वैदाओं के कुछ अपने अलग देवी-देवता भी हैं, जिनमें से ‘कंडे यक्का’ और ‘बिलिंद यक्का’ नामक पूर्वज-देवता प्रमुख हैं. इन पूर्वजों को प्रसन्न करने के लिए इनकी पूजा करने के बाद ‘किरी कोराहा’ (Kiri Koraha) नामक नाच समारोह आयोजित किया जाता है.[27]

श्रीलंका के दक्षिण में कतरगाम (Kataragama) नामक तीर्थस्थल में स्कन्द (हिन्दू देवता और शिव के दूसरे पुत्र, जिन्हें तमिल में ‘मुरुगन’ कहते हैं और जो कार्तिकेय के नाम से भी जाने जाते हैं) पूजे जाते हैं. कतरगाम स्कन्द के बारे में धारणा है कि यहां उन्होंने एक वल्ली नामक वैदा मृग-देवी से विवाह किया था. कतरगाम के मंदिर की इज़्ज़त श्रीलंका के सभी सम्प्रदाय करते हैं और यहां बौद्ध, हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई सभी तीर्थ करते हैं.[28]

विवाह और स्त्री-पुरुषों के सम्बन्ध

वैदाओं में विवाह की रीति बहुत सरल होती है. वधु एक वृक्ष-छाल की रस्सी बनाती है (जिसे ‘दिया लनूवा’ कहते हैं) और उसे वर की कमर में बांध देती है. इसके द्वारा वह यह संकेत देती है कि उसने वर को अपना जीवन-साथी स्वीकार लिया है और विवाह सम्पन्न हो जाता है. वैदा समाज में स्त्रिओं और पुरुषों को कई पहलुओं में बराबरी का दर्जा दिया जाता है. बेटियों को अपने परिवार की सम्पत्ति में बराबर का हक़ मिलता है. वैदा समाज में एक पति की एक ही पत्नी होने का रिवाज है, हालांकि अगर कोई औरत विधवा हो जाए तो अक्सर उसके पति का भाई उससे विवाह कर लेता है.

अंतिम संस्कार

वैदाओं में मृतों को दफ़ना देने का रिवाज है और किसी की मृत्यु होते ही उसे जल्द-से-जल्द दफ़ना देने का प्रयास किया जाता है. 4 से 5 फ़ुट की क़ब्र खोदी जाती है और उसमें शव को कपड़े में लपेटकर लिटा दिया जाता है. ऊपर से उसे पत्तों और मिटटी से ढककर बंद कर दिया जाता है. शव के साथ-साथ मृतक का कुछ निजी सामान भी दफ़ना दिया जाता है, जैसे कि उसके धनुष-बाण और पान-सुपारी की थैली.

क़ब्र के सिरे पर तीन खुले नारियल और एक छोटा लकड़ियों का ढेर और पांव की तरफ़ एक खुला और एक बंद नारियल भी रखा जाता है. कुछ वैदा समुदायों में दफ़नाने से पहले शव को कुछ विशेष जंगली पत्तों या नीम्बू के रस से सुगन्धित किया जाता है. कुछ समुदायों में क़ब्र के सिर, पैर या बीच में ‘पथोक’ नामक एक प्रकार के कैक्टस को बोया जाता है.

10. हाटेन्टॉट्स

खोईखोई (Khoekhoe), जिन्हें सिर्फ़ खोई (Khoi) भी कहा जाता है, अफ़्रीका के दक्षिणी भाग में बसने वाले खोईसान लोगों की एक शाखा है. यह समुदाय बुशमैन समुदाय से क़रीबी सम्बन्ध रखता है और 5वीं सदी से दक्षिणी अफ़्रीका में बसा हुआ है. यहां वे मवेशी पालन और अस्थाई कृषि में लगे हुए हैं. वे खोईखोई भाषाएं बोलते हैं. इन भाषाओं में मौजूद क्लिक व्यंजनों की नकल में यूरोपी लोग खोईखोई लोगों को हॉटेनटॉट (Hottentot) कहते थे लेकिन अब यह एक अपमानजनक नाम माना जाता है इसलिये इसका प्रयोग कम हो गया है.[29][30]

नामा समुदाय खोईखोई लोगों की सबसे बड़ी शाखा है और नामाओं को छोड़कर अधिकतर खोईखोई समुदाय विलुप्त हो चुके हैं.[31]

भारत में रहनेवाली प्रजातियां

प्राचीन काल से ही भारत में आक्रमणकारियों के रूप में विदेशियों का आवागमन होता रहा है, इसके परिणामस्वरूप यहां प्रजातीय मिश्रण इतना अधिक हुआ कि यह कहना बहुत कठिन है कि यहां के मूल निवासी किस प्रजाति के थे. भारत का प्रजातीय इतिहास प्रमाणों के अभाव में अधिक स्पष्ट नहीं है. जो कुछ भी जानकारी मिलती है, उसमें भी विश्वसनीयता और प्रमाणिकता का अभाव पाया जाता है.

प्रागैतिहासिक जातियां

भारत की प्रागैतिहासिक युग की प्रजातियों की जानकारी हमें प्राचीन सिन्धु और नर्मदा घाटियों की सभ्यताओं से मिलती है. मजूमदार एवं गुहा नामक विद्वानों का मत है कि भू-मध्य सागरीय प्रजाति के लोगों ने ही[32], हड़प्पा व मोहनजोदड़ों की सभ्यता का निर्माण किया था, जो सम्भवत: समुद्री मार्ग से भारत में आये होंगे. द्रविड़ों को उत्तर से आने वाली आर्य प्रजाति ने हराया और उन्होंने यहां अपना साम्राज्य स्थापित किया. आर्यों ने द्रविड़ों को दक्षिण में खदेड़ दिया. यही कारण है कि उत्तरी भारत में आर्य प्रजाति और द्रविड़ प्रजाति की प्रधानता है.

प्रारम्भिक काल में भारत में कितने प्रकार की जातियां निवास करती थीं, उनमें आपसी सम्बन्घ किस स्तर के थे, आदि प्रश्न अत्यन्त ही विवादित हैं. फिर भी नवीनतम सर्वाधिक मान्यताओं में ‘डॉ. बी.एस. गुहा’ का मत है. भारतवर्ष की प्रारम्भिक जातियों को छह भागों में विभक्त किया जा सकता है –

  1. नीग्रिटो
  2. प्रोटो ऑस्ट्रेलियाड
  3. मंगोलॉयड
  4. भूमध्यसागरीय द्रविड़
  5. पश्चिमी ब्रेकी सेफल
  6. नॉर्डिक

भारतीय जनसंख्या में उन कई मानव प्रजातियों का सम्मिश्रण पाया जाता है, जो प्रागैतिहासिक काल के पूर्व से ऐतिहासिक काल तक यदाकदा भारत में प्रवेश करती रही हैं. एशिया भूखण्ड के सुदूर दक्षिण में हिन्द महासागर पर स्थित उत्तर, उत्तर पूर्व और उत्तर-पश्चिम में पर्वतमालाओं द्वारा आवेष्ठित और दक्षिण में समुद्रों द्वारा विलग भारत भौगोलिक दृष्टि से एक ऐसा सुरक्षित प्रदेश है, जिसमें यदि कोई प्रवेश करना चाहे तो वह केवल पर्वतीय दर्रों के द्वारा अथवा तटीय भागों से ही प्रवेश कर सकता है.

उपर्युक्त भू-अवस्थाओं के फलस्वरूप भारत में काफ़ी समय पूर्व से आकर रहने वाली प्रजातियां नष्ट न होकर दक्षिण और दक्षिण-पूर्व की ओर हटती गईं और जंगलों ने बड़े परिमाण में आदिवासियों को अपने अंक में स्थान देकर उन्हें सर्वनाश से बचाए रखा है. भारत की जनसंख्या में मानव की समस्त प्रमुख प्रजातियों के वे सभी तत्त्व मौजूद हैं, जो साधारणतया इस सीमा तक अन्य देशों से नहीं मिलते.

रिजले का वर्गीकरण

तत्त्वशास्त्र के दृष्टिकोण से भारतीय प्रजातियों का सर्वप्रथम वर्गीकरण सर हरबर्ट रिजले ने सन 1901 की भारतीय जनगणना में किया था. रिजले के अनुसार, भारतीय जनसंख्या में निम्न सात विभिन्न मानव प्रजातियां सम्मिलित हैं –

1 द्राविड़ियन

ऐतिहासिक युग के पूर्व भारत में द्राविड़ नामक प्रजाति रहती थी, जिन्हें भारत का आदिवासी कहा जा सकता है. पीछे से आने वाली आर्य, सिथीयन तथा मंगोल प्रजातियों के सम्पर्क से इनकी नस्ल में बड़ा अन्तर आ गया है. ये भारत के दक्षिण में तमिलनाडु, आन्ध्र प्रदेश, छोटानागपुर का पठार और मध्य प्रदेश के दक्षिणी भागों में रहते हैं. मालाबाद के पनियान, उड़ीसा के जुआंग, पूर्वी घाट के कोंड, छत्तीसगढ़ के गोंड, नीलगिरि के टोडा, राजस्थान और गुजरात के भील और गरासिया एवं छोटा नागपुर के सन्थाल इसी प्रजाति के प्रतिनिधि हैं. इसका कद छोटा और रंग प्राय: पूर्णत: काला होता है. इनकी आंखेंं काली, सिर लम्बा तथा घने बालों वाला (जो कभी-कभी घुंघराले भी होते हैं), नाक बहुत चौड़ी (जो कभी-कभी जाड़ों में दबी हुई होती है) और खोपड़ी बड़ी होती है. यह प्रजाति भारत की जनसंख्या का केवल 20% है.

2. भारतीय आर्य

ऐसा अनुमान किया जाता है कि ईसा से 2000 वर्ष पूर्व आर्य लोग मध्य एशिया से भारत आये और इन्होंने यहां बसने वाली द्राविड़ जाति को दक्षिण की ओर खदेड़ दिया. इस समय साधारणत: यह प्रजाति पंजाब, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और कश्मीर में पाई जाती है. इस प्रजाति के वर्तमान सदस्य राजपूत, खत्री और जाट हैं. हिन्दुओं के तीन उच्च वर्ग (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) आर्य प्रजाति के ही वंशज हैं. इसका कद लम्बा, रंग गोरा, सिर ऊंचा, आंखेंं घनी और गहरी, भुजाएं लम्बी कंधे चौड़े, कमर और टांगें पतली, नाक ऊंची, नुकीली और लम्बी होती है. इसके चेहरे पर भरपूर बाल होते हैं.

3. मंगोलॉयड

यह प्रजाति हिमाचल प्रदेश, नेपाल और असम में फैली हुई है. लाहुल और कुल्लू के कनेत, सिक्किम और दार्जिलिंग के लेप्चा, नेपाल के लिम्ब, मर्मी और गुरूंग, असम के बोडू लोग इस प्रजाति के मुख्य प्रतिनिधि हैं. इनका कद छोटा, सिर चौड़ा, नाक चौड़ी, चेहरा चपटा, भौंहें टेड़ी, रंग पीला और शरीर पर बाल कम होते हैं.

4. आर्य द्राविड़ियन

यह प्रजाति आर्य और द्राविड़ लोगों के सम्मिश्रण से बनी है. यह उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड और राजस्थान के कुछ भागों में फैली हुई है. उच्च कुलों में हिन्दुस्तानी ब्राह्मण और निम्न कुलों में हरिजन इसका प्रतिनिधित्व करते हैं. इन लोगों का सिर प्राय: लम्बा या मध्यम आकार का होता है. कद विशुद्ध आर्यों से कुछ छोटा, नाक मध्यम से चौड़ी और रंग हल्का भूरा, गेहुंआ होता है.

5. मंगोल-द्राविड़ियन

यह प्रजाति पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में पाई जाती है. बंगाली ब्राह्मण और बंगाली कायस्थ इसके मुख्य प्रतिनिधि हैं. यह प्रजाति द्राविड़ और मंगोल तत्त्वों से बनी है. उच्च वर्गों में भारतीय आर्य लोगों के रक्त का अंश भी देखा जाता है. इन लोगों का कद मध्यम और कभी-कभी छोटा होता है. इनका सिर चौड़ा और गोल, रंग काला, बाल घने और नाक चौड़ी होती है.

6. सिथो-द्राविड़ियन

यह प्रजाति सिथियन और द्राविड़ लोगों के सम्मिश्रण से बनी है. ये लोग केरल, सौराष्ट्र, गुजरात, कच्छ और मध्य प्रदेश के पहाड़ी भागों में फैले हुए हैं. समाज के उच्च वर्गों में सिथियन तत्त्व और निम्न वर्गों में द्राविड़ तत्त्व प्रमुख हैं. ये लोग कद में छोटे और काले रंग के होते हैं. इनका सिर अपेक्षतया लम्बा और नाक मध्यम होती है. इनके सिर पर बाल कम होते हैं.

7. तुर्क-ईरानी

वर्तमान समय में यह प्रजाति अफ़ग़ानिस्तान और बलूचिस्तान में पाई जाती है.

रिजले का वर्गीकरण अब अनेक कारणों से अमान्य हो गया है. यह प्रजातियों के शरीरिक लक्षणों पर आधारित न होकर भाषाओं पर आधारित है. यह अपूर्ण है तथा रिजले ने भारतीय जनसंख्या में नीग्रिटो तत्त्व का कोई ज़िक्र नहीं किया है. किन्तु भारत में द्राविड़ों से पूर्व की प्रजातियों में निग्रिटो तत्त्व की उपस्थिति को मना नहीं किया जा सकता है.

ग्यूफ्रिडा का वर्गीकरण

रिजले के पश्चात् नृतत्व विज्ञान के कई विशेषज्ञों ने भारतीय प्रजातियों का वर्गीकरण करने की चेष्टा की है, किन्तु 1931 की जनगणना तक कोई भी उचित और वैज्ञानिक वर्गीकरण प्रस्तुत नहीं किया जा सका. ग्यूफ्रिडा के अनुसार भारत की प्रजातियों का वर्गीकरण निम्न प्रकार से है –

  1. नीग्रिटो नीग्रिटो के अंतर्गत दक्षिणी भारतीय वनों में रहने वाली कुछ जनजातियां और अण्डमान द्वीपसमूह की ओंग जनजाति.
  2. पूर्व द्राविड़ या आस्ट्रेलॉयड – इसके मुख्य उदाहरण वेद्दा, संथाल, ओरन, मुण्डा और हास जनजातियां हैं. इनके शारीरिक लक्षण भी नीग्रिटो की भांति ही होते हैं.
  3. द्राविड़ – द्राविड़ प्रजाति दक्षिणी भारत में पाई जाती है. इसके अंतर्गत तेलुगु और तमिल भाषा-भाषी लोग सम्मिलित किये गए हैं.
  4. ऊंचे कद की लम्बे सिर वाली प्रजातियां – जैसे नीलगिरि के टोडा और केरल के कडार.

हैडन का वर्गीकरण

हैडन के अनुसार भारत मुख्यत: तीन भौगोलिक प्रदेशों में बंटा है –

इन प्रदेशों में निम्न प्रजातियों के तत्त्व पाए जाते हैं-

(अ) हिमालय प्रदेश

  1. भारतीय आर्य – जैसे कनेत जो हिमाचल प्रदेश की कुल्लू घाटी में पाए जाते हैं और जिनमें तिब्बती रक्त का अंश भी मिलता है.
  2. मंगोल जैसे नेपाल और भूटान के पर्वतीय भागों में भूटिया, गुरंग, गुर्मी, गुरखा और नेबार लोग मिलते हैं.
  3. पर्वतीय भागों में लाहुल क्षेत्र के कनेत लोग.

(ब) मैदानी भागों में दो प्रकार के लोग पाए जाते हैं-

  1. कश्मीर की घाटी, राजस्थान और पंजाब में रहने वाले जाट, गूजर, राजपूत, आदि, जिनका रंग गोरा, कद लम्बा, सिर लम्बा, चौड़ा ललाट, लम्बा संकरा चेहरा और सीधी लम्बी नाक होती है.
  2. हिमालय प्रदेश में शिवालिक प्रदेश के पहाड़ी लोग तथा दक्षिण की ओर के लोग.

(स) दक्षिण के पठार पर पाए जाने वाले लोगों के लिए हैडन ने द्राविड़ शब्द का उपयोग किया है. यहां इनके अनुसार ये तत्त्व पाए जाते हैं-

  1. पूर्व द्राविड़-सन्थाल, पनियान, कडार, कुरुम्बा, इरूला, कन्नीकर, कौंध, भील, गोंड, कोलारी और मुण्डा लोग इसके उदाहरण हैं. ये नाटे काले से भूरे रंग के लहरदार घुंघराले बाल वाले और चौड़ी नाक वाले होते हैं.
  2. द्राविड़-मालाबार तट और केरल के निवासी, जिनमें नय्यर, बड़ागा, तियान, कनारी हिन्दू, इजूवान और तमिल ब्राह्मण सम्मिलित हैं. ये लोग तमिल, तेलुगु, मलयालम और कन्नड़ भाषा बोलते हैं.
  3. दक्षिणी चौड़े सिर वाले लोग बेल्लारी से लगाकर तिरुनलवैली ज़िले तक फैले हैं। पनियान और पराबा मछुए इनके प्रतिनिधि हैं.
  4. पश्चिमी चौड़े सिर वाले लोग गुजरात से लगाकर पश्चिमी तट पर केरल में मिलते हैं. नागर ब्राह्मण, प्रभु, मराठा, कुर्ग आदि इनके प्रतिनिधि हैं.

ईक्सटैड का वर्गीकरण

सन 1929 में ईक्सटैड ने भारतीयों का भौतिक और सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से वर्गीकरण किया. इनके अनुसार, भारत में चार मुख्य प्रजातियां हैं, जिनके सात उपभेद हैं.

(अ) वैडीड या प्राचीन भारतीय-वन प्रदेशों के अति प्राचीन आदिवासी, जो इन श्रेणियों में बंटे हैं –

  1. गोंडिड लोग छोटे से मध्यम कद, गहरे भूरे रंग और घुंघराले बाल वाले होते हैं. ये जादू-टोने में विश्वास करते हैं. इनमें ओंरन, ओरांब और गोंड मुख्य हैं.
  2. मालिड छोटे कद, घुंघराले बाल वाले और काले भूरे रंग के होते हैं. ये अधिक असभ्य होते हैं. कुरूम्बा, इरूला, चेंचू, कन्नीकर, मलेवान और वेद्दा इनके मुख्य उदाहरण हैं.

(ब) मैलेनिड अथवा काले भारतीय एक मिश्रित प्रजाति है, जो दो भागों में बांटी गई है-

  1. दक्षिण मैलेनिड, भारत के सुदूर दक्षिणी मैदानों में काले भूरे रंग के लोग हैं. यनादि इनका मुख्य उदाहरण है.
  2. कोलिड दक्षिण के उत्तरी वन प्रदेशों के अति प्राचीन निवासी हैं. ये काले भूरे रंग के छोटे कद के होते हैं. सन्थाल, खरिया, भुइया, भूमिज और मुण्डा इनके उदाहरण हैं.

(स) इण्डीड या नवीन भारतीय-ये लोग अधिक विकसित एवं खुले मैदानों में रहने वाले हैं. ये निम्न भागों में विभाजित हैं –

  1. ग्रेसाइल इण्डीड पीत वर्ण, पतली नाक और बड़ी आंखों वाले लोग जो पैतृक परिवार को मानने वाले हैं, जैसे बंगाली आदि.
  2. उत्तरी इण्डीड हल्के भूरे रंग वाले, जो प्रारम्भ से ही पैतृक परिवार के मानने वाले हैं, जैसे टोडा एवं राजपूत लोग.

(द) पूर्व मंगोल वायनाद ज़िले के पलायन लोग.

हट्टन का वर्गीकरण

हट्टन ने भारतीय प्रजातियों के बारे में अपना वर्गीकरण प्रस्तुत किया है. इनके अनुसार भारत में किसी भी प्रजाति का मूल स्थान नहीं है. सभी प्रजातियां यहाँ बाहर से आयी हैं. अपने आने के क्रम के अनुसार विभिन्न प्रजातियां ये हैं –

  1. नीग्रिटो – नीग्रिटो प्रजाति भारत की प्राचीनतम प्रजाति है जो अपने मूल स्थान मैलेनेशिया से असम, म्यांमार, अण्डमान-निकोबार और मालाबार में फैली, किन्तु अब इसके अवशेष हमें भारत के मुख्य भाग पर प्राप्त नहीं होते.
  2. प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड – नीग्रिटो लोगों के बाद भारत में आए. इनका मूल-स्थान फिलिस्तीन था. यहीं से ये पश्चिम की ओर से भारत में आये. इनकी त्वचा का रंग चॉकलेट जैसा काला होता है तथा खोपड़ी लम्बी. इनके अवशेष अनेक जनजातियों में विद्यमान हैं.
  3. पूर्व-भूमध्यसागरीय प्रजाति – पूर्वी यूरोप से भारत की ओर आयी है. इनमें कुछ का सिर लम्बा और कुछ का चौड़ा होता है. मध्य भारतीय प्रदेश में गुजरात, मध्य प्रदेश होते हुए पश्चिमी बंगाल तक इस प्रजाति का विस्तार पाया जाता है. इसे सिंचाई और खेती करने का ज्ञान था. अधिक विकसित भूमध्यसागरीय प्रजाति भारत में आकर द्राविड़ प्रजाति बन बस गई. ये अधिक लम्बे और गोरे रंग वाले हैं. यही लोग उत्तरी भारत में पंजाब और गंगा की ऊपरी घाटी में फैले हैं. इस प्रजाति को धातुओं के प्रयोग तथा नगर बसाने की कला का ज्ञान था. सम्भवत: इन्होंने ही सिन्धु घाटी की सभ्यता का विकास किया था.
  4. अल्पाइन या पूर्व-वैदिक – जो गुजरात और पश्चिम बंगाल में मिलते हैं.
  5. नॉर्डिक या वैदिक आर्य – जो यूरोपीय स्टैपी प्रदेश से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व भारत में आये और पंजाब, राजस्थान एवं गंगा की ऊपरी घाटी में बस गये.
  6. मंगोल – उत्तरी-पूर्वी भागों से आकर भारत के पूर्वी भागों में, बंगाल और इंडोनेशिया में फैलकर बस गए.

गुहा का वर्गीकरण

सबसे मुख्य और सर्वमान्य वर्गीकरण डॉक्टर गुहा द्वारा (1931 की जनगणना रिपोर्ट में) प्रस्तुत किया गया है.[33] डॉक्टर गुहा का वर्गीकरण निम्न प्रकार है –

  1. नीग्रिटो
  2. प्रोटो आस्ट्रेलॉयड या पूर्व-द्राविड़
  3. मंगोलॉयड : पूर्व-मंगोल, लम्बे सिर वाले, चौड़े सिर वाले, तिब्बती मंगोल.
  4. भूमध्यसागरीय : प्राचीन भूमध्यसागरीय, भूमध्यसागरीय, पूर्वी लोग.
  5. पश्चिमी चौड़े सिर वाले अथवा एल्पो-दिनारिक : एल्पीनॉयड, दिनारिक, आर्मीनॉयड
  6. नॉर्डिक
वर्ष 1931 की जनगणना रिपोर्ट के आधार भारत में रहने वाली जाति और जनजाति

1. नीग्रिटो

भारतीय जनसंख्या में नीग्रिटो तत्त्व का समावेश एक संदिग्ध और विवादास्पद विषय माना जाता है. वास्तविक नीग्रिटो प्रजाति फिलीपीन, न्यूगिनि, अण्डमान द्वीप और मलेशिया प्राय:द्वीप के सेमांग और सकाई लोगों के रूप में मिलती है. भारत में इन लोगों की उपस्थिति के बारे में निश्चयात्मक रूप से नहीं कहा जा सकता. लैपीक के अनुसार, भारत में नीग्रिटो जाति का अंश दक्षिण भारत के आदिवासियों में पाया जाता है.

ट्रावनकोर-कोचीन के कडार और पुलियान और वायनाड की प्राचीन जनजातियां और इरूला लोगों के सिर पर प्राय: उन जैसे बाल देखे जाते हैं तो नृतत्त्वशास्त्र के दृष्टिकोण से नीग्रो रक्त को इंगित करते हैं. किन्तु थर्स्टन महोदय ने उपरोक्त मत का खंडन किया है.

इसके विपरीत, ग्यूफ्रीडा रूजीरी का विचार है कि दक्षिण भारत की जनजातियों में पाये जाने वाले नीग्रिटो आज भी विद्यमान हैं. प्रजातीय दृष्टि से ये लोग श्रीलंका के वेद्दा, सुमात्रा के बाटिन और सुलाबेसी के तोला लोगों से सम्बन्धित है. इस मत को हैडन ने भी स्वीकार किया है कि यद्यपि दक्षिण में नीग्रिटो प्रजाति होने की शंका की जाति है, किन्तु इसकी वास्तविक सत्यता अभी ज्ञात नहीं है.[34]

डॉक्टर गुहा ने कडार और कुछ अन्य पहाड़ी जातियों में नीग्रिटो तत्त्व को स्वीकार किया है. डॉक्टर सरकार के अनुसार, राजमहल पहाड़ियों की आदिम जातियों में घुंघराले बाल पाए जाते हैं. डॉक्टर हट्टन ने इन सब तथ्यों पर विचार करने के उपरान्त लिखा है कि भारतीय प्राय:द्वीप के सबसे पूर्व के निवासी सम्भवत: नीग्रो जाति के ही थे, किन्तु बाद में उनका शीघ्रता से ह्यस होता चला गया. यद्यपि वे अण्डमान द्वीप में आज भी वर्तमान हैं, परन्तु भारतीय भूमि पर उनके बहुत कम अंश शेष हैं.

सुदूर दक्षिण के वनों के कडार और यूराली लोगों में यदाकदा छोटे कद, घुंघराले बाल और नीग्रो आकृति के लोग देखे जाते हैं, जो वास्तव में भारत में नीग्रिटो प्रजाति के अवशेष को स्पष्ट करते हैं.[35] ग्यूफ्रीडा भारत और फ़ारस की खाड़ी के बीच नीग्रिटो लोगों की उपस्थिति ऐतिहासिक काल के पूर्व मानते हैं.

बंगाल की खाड़ी, मलेशिया प्राय:द्वीप, फिजी द्वीपसमूह, न्यूगिनी, दक्षिण भारत और दक्षिणी अरब में नीग्रिटो अथवा आंशिक नीग्रो लोगों की उपस्थिति यह मान लेने को प्रेरित करती है कि किसी पूर्व-ऐतिहासिक काल में नीग्रिटो लोग एशिया महाद्वीप के बहुत बड़े भाग विशेषकर दक्षिणी भाग को घेरे हुए थे. बाद में पूर्व-द्राविड़ों और द्राविड़ों के आने पर (जो उनसे अधिक शक्तिशाली थे) इन लोगों की समाप्ति हो गई अथवा वे उनमें विलीन हो गए. वर्तमान समय में ये लोग कहीं-कहीं पर अवशेष रूप में पाए जाते हैं.

नीग्रिटो तत्त्व मुख्यत अण्डमान द्वीप वासियों में मिलता है.[36] यह असम, पूर्वी बिहार की राजमहल की पहाड़ियों में भी हैं. इनके अन्य प्रतिनिधि अंगामी, नागा, बांगडी, इरूला, कडार, पुलायन, मुथुवान और कन्नीकर आदि हैं. प्रोफ़ेसर कीन कडार, मुथुवान, पनियान, सेमांग, ओरांव और आस्ट्रेलियाई आदिवासियों को उन लोगों की सन्तान मानते हैं, जो किसी समय सम्पूर्ण भारत में निवास करते थे. ये लोग ही सबसे पहले मलेशिया से भारत की ओर बंगाल की खाड़ी के द्वार से घुसे और उत्तर में हिमालय पर्वत की तलहटी तथा दक्षिण में प्राय:द्वीप पर फैल गए.[37]

इन लोगों की मुख्य विशेषता यह है कि ये कद में बहुत छोटे होते हैं. इनका सिर छोटा, किन्तु ललाट उभरा हुआ होता है. इनके बाल सुन्दर और ऊन जैसे छल्लेदार होते हैं. ये रंग में काले होते हैं. सिर की बनावट गोल से लगाकर लम्बी अथवा मध्यम होती है. इनके हाथ-पैर कोमल होते हैं. चेहरा छोटा, नाक चपटी और चौड़ी, माथा आगे की ओर निकला हुआ, भौं कि हड्डियां सपाट और दाड़ी छोटी और होंठ मोटे और मुड़े हुए होते हैं.

सभ्यता

नीग्रिटो लोगों की सभ्यता बहुत अविकसित दशा में थी. ये पूर्व-पाषाण युग की सभ्यता लेकर भारत आए थे. पत्थर, हड्डी के अनगढ़ हथियार तथा तीर-कमान के सिवाय इन्हें अन्य किसी हथियार का ज्ञान नहीं था. खेती, मिट्टी के बर्तन बनाना तथा भवन-निर्माण का भी इन्हें ज्ञान नहीं था. ये लोग गुफाएं बनाकर रहते थे और भोजन के लिए वस्तुएं एकत्रित करने का काम करते थे. खेती करना इन्हें न आता था, किन्तु ये लोग वट वृक्ष की पूजा करते थे. इस पूजा का उद्देश्य संतान प्राप्त करना तथा मृतकों को सदगति प्रदान करना था. भारतीय संस्कृति में वट वृक्ष की पूजा का चलन एवं गुफाओं का निर्माण इन्हीं लोगों की देन है.

प्रोटो-आस्ट्रेलॉयड

ये सम्भवत: भारत में आने वाली दूसरी प्रजाति आदि-द्राविड़ थी. यद्यपि इनके आदि पूर्वज फिलिस्तीन में देखे जा सकते हैं, परन्तु भारत में ये कब और कैसे आए, यह अभी भी ज्ञात नहीं है. किन्तु भारत की वर्तमान जनजातियों में इन प्रजाति का अंश ही सर्वाधिक है. यह प्रजाति भारत में सारे ही देश में मिलती है. इन लोगों में श्रीलंका के वेद्दा, आस्ट्रेलियाई और मलेशियाई लोगों के रंग, चेहरे और बालों, आदि में इतनी समानता पाई जाती है कि उससे यह स्पष्ट है कि ये चारों एक ही प्रजाति के वंशज हैं. भारत में ये लोग बाहर से आए हैं अथवा भारत से ही ये बाहर के देशों में पहुंचे हैं, यह अभी भी विवादास्पद है. ये आस्ट्रेलियाई लोगों से बहुत मिलते-जुलते हैं. अत: इन्हें आदि-द्राविड़ नाम दिया गया है.

वास्तविक आस्ट्रेलियाई लोगों की नाक चेहरे से पिचकी हुई, छाती मजबूत और शरीर पर घने बाल होते हैं, जो भारतीय जनजातियों में नहीं देखे जाते, किन्तु दक्षिण भारत के चेंचू मलायन, कुरूम्बा, यरूबा, मुण्डा, कोल, सन्थाल और भील समूहों में ऐसे बहुत से लोग पाए जाते हैं, जिनमें उपर्युक्त विशेषताएं हैं. अनुसूचित जातियां प्रधानत: इसी प्रजाति से बनी हुई मानी जाती हैं. ये लोग कद में नाटे और गहरे भूरे अथवा काले रंग के होते हैं. इनका सिर लम्बा और नाक चौड़ी, चपटी या पिचकी हुई होती है. इनके बाल घुंघराले और ओंठ मोटे और मांसल मुड़े हुए होते हैं.

मंगोलॉयड

इस प्रजाति का आदि स्थान इरावती नदी की घाटी, चीन, तिब्बत और मंगोलिया को माना जाता है. यहीं से ईसा के पूर्व प्रथम शताब्दी के मध्य ये लोग भारत आए और धीरे-धीरे उत्तरी-पूर्वी बंगाल के मैदान और असम की पहाड़ियों तथा मैदानों में घुसते चले गए. यद्यपि उत्तर और उत्तर-पूर्व के कठिन स्थल मार्गों ने उनके यहां बड़ी मात्रा में प्रवेश में रोड़े अटकाए, परन्तु फिर भी वे निरन्तर आगे बढ़ते रहे. यही कारण है कि भारत के उत्तरी-पूर्वी भागों में नेपाल, असम और पूर्वी कश्मीर में तीन प्रकार के मंगोल लोग पाए जाते हैं.

मंगोल प्रजाति अन्य प्रजातियों से इन बातों में भिन्न है-इनका मुंह चपटा और गाल की हड्डियां उभरी हुई होती हैं. आंखेंं बादाम की आकृति की होती हैं. चेहरे और शरीर पर बाल कम होते हैं. इनका कद छोटे से मध्यम तक तथा सिर चौड़ा और रंग पीलापन लिये हुए होता है.

मंगोल समूह में तीन प्रजातियां हैं –

(अ) पूर्वी-मंगोलॉयड बहुत ही प्राचीन प्रजाति है. यह शीघ्रता से पहचानी नहीं जाती. सिर की बनावट, नाक और रंग से ही इन्हें पहचाना जा सकता है. यह दो श्रेणियों में बंटी है –

  1. मंगोल प्रजाति, जिसका कद साधारण, नाक साधारण किन्तु कम ऊंची, चेहरे और शरीर पर बालों का अभाव, आंखेंं तिरछी या मोड़ अधिक नहीं, चेहरा चपटा और छोटा, रंग गहरे से हल्का भूरा होता है. लम्बे सिर वाली यह प्रजाति उप-हिमालय प्रदेश, असम और म्यांमार की सीमा पर रहने वाले आदि लोगों (जैसे-नागा, मीरी, बोंडो आदि) में बहुत ही अधिक पायी जाती है.
  2. इस समूह की दूसरी प्रजाति चौड़े सिर वाली है. बांग्लादेश में चिटगांव पर्वतीय आदिवासी (जैसे चकमास) इसी श्रेणी के हैं. कलिम्पोंग की लेप्चा जाति भी इसी समूह में सम्मिलित है. इनका सिर चौड़ा, रंग काला और नाक मध्यम आकार की होती है. चेहरा छोटा और चपटा होता है. इसके सिर के बाल सीधे, परन्तु कुछ घुंघराले प्रवृत्ति लिए होते हैं.

(ब) तिब्बती मंगोलॉयड लोग लम्बे कद, चौड़े सिर और हल्के रंग के होते हैं. चौड़ी चपटी नाक, लम्बा चपटा मुंह और शरीर पर बालों का अभाव इनकी अन्य विशेषताएं हैं. ये लोग सिक्किम में पाए जाते हैं. ये तिब्बत की ओर से भारत में आये माने जाते हैं. मंगोल प्रजाति ने भारत की संस्कृति पर बड़ा प्रभाव डाला है. दूध, चाय, काग़ज़, चावल, सुपारी की खेती, सामूहिक घरों की प्रथा, सीढ़ीनुमा खेती, शेर का शिकार करना, आदि का प्रयोग करना इन्हीं लोगों की देन है.

भूमध्यसागरी या द्राविड़ जाति

भारत के आदिवासियों में तीन प्रमुख प्रजातियों (नीग्रिटो, पूर्व-द्राविड़ और मंगोल) के तत्त्व ही अधिक हैं. इनके अतिरिक्त साधारण जनसंख्या मुख्यत: भूमध्यसागरीय, एल्पो-दिनारिक और नॉर्डिक प्रजातियों से बनी है. इनके अतिरिक्त साधारण समूह सबसे बड़ा है. इस प्रजाति की कोई एक किस्म नहीं वरन् अनेक किस्में हैं, जो लम्बे सिर, काले रंग और अपनी ऊंचाई द्वारा पहचानी जाती है. भारत में इस प्रजाति की तीन किस्में मिलती हैं –

(अ) प्राचीन भूमध्यसागरीय लोग काले या गहरे भूरे रंग और लम्बे सिर वाले होते हैं. लम्बा चेहरा, लहरियेदार बाल, चौड़ी नाक, मध्यम कद और चेहरे और शरीर पर कम बाल आदि इनकी अन्य विशेषताएं हैं. दक्षिण भारत के तेलुगु और तमिल ब्राह्मणों में इस प्रजाति का अत्यधिक प्रभाव देखा जाता है.

(ब) भूमध्यसागरीय प्रजाति को ही भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता को जन्म देने का श्रेय है. 2500 ईसा पूर्व के लगभग जब आर्य भाषा-भाषी आक्रमणकारी उत्तरी ईराक से ईरान होते हुए गंगा के मैदान में आए तो ये लोग इधर-उधर फैलते गए. आज उत्तरी भारत की जनसंख्या में यही तत्त्व सबसे अधिक विद्यमान है. इस प्रजाति के लोग पंजाब, कश्मीर, राजस्थान और उत्तर प्रदेश में फैले हुए हैं.

मध्य प्रदेश के मराठा और उत्तर प्रदेश, केरल, महाराष्ट्र और मालाबार के ब्राह्मण इस जाति के प्रतिनिधित्व स्वरूप हैं. ये लोग मध्यम से लेकर लम्बे कद के होते हैं. इनकी नाक संकरी, परन्तु दाढ़ी उन्नत होती है. चेहरा और सिर प्राय: लम्बा और काला रंग अथवा भूरा होता है. शरीर पर घने बाल, बड़ी खुली आंखेंं, आंखों का रंग गहरा भूरा तथा काला, लहरदार बाल अथवा पतला शरीर इनकी अन्य विशेषताएं हैं.

इस प्रजाति ने सिन्धु घाटी सभ्यता को अपनाया और उन्नत किया. वर्तमान भारतीय धर्म और संस्कृति का अधिकांश इन्हीं लोगों के द्वारा निर्मित है. सामान्य पालतु पशु, यातायात, वस्त्र तथा आभूषण, भवन निर्माण कला, ईटों का प्रयोग और शहरों की रचना आदि इन्हीं लोगों द्वारा प्रचलित किए गए हैं. भारतीय लिपि और खगोलशास्त्र में भी इनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है.

(स) पूर्वी अथवा सैमेटिक प्रजाति का उदभव स्थान टर्की और अरब रहा है. यहां से यह प्रजाति भारत की ओर आई. यह प्रजाति भूमध्यसागरीय प्रजाति से बहुत कुछ मिलती-जुलती है, किन्तु इसकी नाक की बनावट में थोड़ा अन्तर पाया जाता है. इन लोगों की नाक लम्बी और नतोदर होती है. भारत में ये लोग पंजाब, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पाए जाते हैं.

ये लोग नव पाषाण युग की सभ्यता लेकर भारत आए थे. ये पत्थरों को घिसकर उनके धारदार औजार बनाते थे. कुदाली से खोदकर खेती करते थे, कुम्हार के चाक से मिट्टी के गोल घड़े, बर्तन आदि बनाते थे. ये वस्तुएं भारत को इन लोगों की देन मानी जाती हैं. इस प्रजाति की भाषा के अनेक शब्द भारत की प्रचलित भाषाओं में पाए जाते हैं. धान, केला, नारियल, बैंगन, पान, सुपारी, नीबू, जामुन, कपास आदि इसी प्रजाति की देन हैं. इसी प्रजाति ने हाथी को पालतू बनाया.

सांस्कृतिक क्षेत्र में भी इसी प्रजाति ने भारत को अनेक बातें दी हैं. पान-सुपारी का व्यवहार तथा महोत्सव में सिन्दूर और हल्दी का उपयोग इसी प्रजाति से किया गया है. पुनर्जन्म का विचार, ब्रह्माण्ड और सृष्टि की उत्पत्ति सम्बन्धी कई दन्तकथाएं, पत्थर को देवता बनाकर पूजना, नाग, मगर, बन्दर आदि पशुओं की पूजा, वस्तुओं के वर्जन का विचार आदि सब आदि-द्राविड़ों की देन हैं. चन्द्रमा के हिसाब से तिथि का परिगणन भी इसी सभ्यता की देन है.

भारतीय संस्कृति को इनकी देन बहुत अधिक है. मिट्टी के बर्तन बनाना, तीर-कमान चलाना, देशी नावें बनाना, मोर, घोड़े, टट्टू आदि पशुओं को पालना, गन्ने के रस से शक्कर बनाना, कौड़ी के अनुसार प्रत्येक वस्तु को बीस की संख्या से गिनना, विवाह आदि अवसर पर कंकुम और हल्दी का प्रयोग करना भी इन्होंने भारत को दिया है.

पाषाण युग की स्मृति को बनाए रखने के लिए पत्थर को देवता मानकर उनकी पूजा करना, उसे सिन्दूर और चन्दन लगाना, उसके सम्मुख धूप-दीप जलाना, घंटा-घड़ियाल बजाना, उसके समक्ष नाच-गान करना, मूर्ति को भोग लगाना और उसके ऊपर चढ़े भोग को प्रसाद के रूप में बांटना, ये सभी भारत को इन्हीं लोगों की देन है. इनके समय स्त्रियां कम थीं, अत: इन्होंने यहां की स्त्रियों से विवाह कर उनकी संस्कृति को भी अपना लिया.

शिवलिंग की पूजा भी आरम्भ हो गई. योग क्रियाएं, दवाइयों का उपयोग, नगर निर्माण की सभ्यता, उच्च श्रेणी की खेती करने के ढंग, सुधरे ढंग की नावें, युद्ध में प्रवीणता, वस्त्र बुनना एवं कातना, औजारों का निपुणता से प्रयोग, सर्प और पशुओं एवं वृक्षों की आत्माओं की पूजा, मातृ शक्ति का आदर, विवाह के रीति-रिवाज भी इन्हीं लोगों की देन है.

पश्चिमी चौड़े सिर वाली प्रजाति

ये प्रजाति भारत में मध्य एशियाई पर्वतों से पश्चिम की ओर से आई है. इनको एल्पोनायड, दिनारिक और आरमिनायड तीन भागों में बांटा गया है. इनके ये नाम यूरोप में जिस प्रदेश से ये सम्बन्धित हैं, उस आधार पर रखे गये हैं.

एल्पोनायड प्रजाति : एल्पोनायड प्रजाति के मूल लोग यूरोप के मध्य में आल्प्स पर्वत के आस पास बड़ी संख्या में पाए जाते हैं. ये लोग मध्यम छोटे कद के होते हैं. इनके कंधे चौड़े, छाती गहरी, टांगें लम्बी और चौड़ी और अंगुलियों छोटी होती हैं. इनका सिर और चेहरा गोल और नाक पतली और नुकीली होती है. रंग भूमध्यसागरीय लोगों से हल्का और शरीर मोटा और मजबूत बना होता है. शरीर और चेहरे पर बाल बहुतायत से होते हैं.

सम्भवत: यह लोग दक्षिणी बलूचिस्तान से सिन्ध, सौराष्ट्र, गुजरात और महाराष्ट्र होकर कर्नाटक, तमिलनाडु, श्रीलंका और गंगा के सहारे बंगाल में पहुंचे. यह प्रजाति सौराष्ट्र (काठी), गुजरात (बनिया), बंगाल (कायस्थ) महाराष्ट्र, कन्नड़, तमिलनाडु, बिहार और गंगा के डेल्टा में पूर्वी उत्तर प्रदेश में पाई जाती है.

दिनारिक:  इनका उद्गम स्थान आल्प्स क्षेत्र को माना जाता है. इनका कद लम्बा, रंग काला, सिर छोटा एवं चौड़ा, नाक लम्बी एवं नतोदर, सुगठित शरीर, होठ चौड़े, घुँघराले बाल पाये जाते हैं. वर्तमान समय में भारत के पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, केरल, तमिलनाडु, सौराष्ट्र, पश्चिम हिमालय क्षेत्र में निवास करते हैं. मैसूर के कुर्ग व केनेरीज ब्राह्मण इसके उदाहरण हैं.

आर्मीनाइड : आर्मीनाइड प्रजाति के लोग भारत में सबसे कम संख्या में पाये जाते हैं. अन्य पश्चिमी चौड़े सिर वाली प्रजातियों की भाँति इस मानव प्रजाति के लोगों के शरीर पर बाल पर्याप्त मात्रा में पाये जाते हैं. इनके शरीर का कद मध्यम आकार काए चौड़ा सिर एवं नाक लम्बी पायी जाती है. त्वचा का रंग गोरा होता है. बम्बई में निवास करने वाले पारसी, बंगाल के कायस्थ तथा वेद्दा जाति के लोगों में आर्मीनाइड प्रजाति के लक्षण पाये जाते हैं.

नार्डिक प्रजाति

इस मानव प्रजाति के लोगों का आगमन भारत में सबसे अन्त में हुआ. इस मानव प्रजाति की उत्पत्ति स्टेपी प्रदेश में हुई. वहाँ से इस प्रजाति के लोग ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में भारत के उत्तर.पश्चिमी भाग से होकर भारत में आये. पंजाब-गंगा-यमुना मैदान में होकर ये पूरे भारत में फैल गए. वर्तमान समय में इस मानव प्रजाति के लोगों की अधिकतम संख्या पंजाबए हरियाणाए राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के पश्चिमी भाग में सवर्ण जातियों में पायी जाती है.

नार्डिक प्रजाति के लोगों में शारीरिक कद लम्बा एवं सुगठित, सिर का आकार बड़ा एवं लम्बा, नाक लम्बी, पतली एवं ऊँची, त्वचा का रंग गोरा, आँख नीली आदि शारीरिक विशेषताएँ पायी जाती हैं. उत्तरी-पश्चिमी सीमा के रेडकाफिर, रामपुर के खलस व बीजापुर के पठान, उत्तरी भारत के जाट व गुर्जर इस प्रजातीय वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं. भारत में इस मानव प्रजाति के लोग अपने साथ उन्नत किस्म के गेहूँ, दूध, जुआ खेल, आर्य भाषा आदि अपने साथ लेकर आये थे. अतः इस प्रजाति की देन भारत में अपना प्रमुख स्थान रखती है.

सन्दर्भ –

  1. Gannon, Megan (5 February 2016). “Race Is a Social Construct, Scientists Argue”Scientific American (अंग्रेज़ी में). अभिगमन तिथि 2020-09-08.
  2. “जलवायु परिवर्तन है क्या ?”BBC Hindi. मूल से 21 जनवरी 2018 को पुरालेखित.
  3. Yuan, Dejian; Lei, Xiaoyun; Gui, Yuanyuan; Wang, Mingrui; Zhang, Ye; Zhu, Zuobin; Wang, Dapeng; Yu, Jun; Huang, Shi (2019-06-09). “Modern human origins: multiregional evolution of autosomes and East Asia origin of Y and mtDNA”bioRxiv (अंग्रेज़ी में): 101410. डीओआइ:10.1101/101410. मूल से 18 जून 2019 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 14 मई 2020.
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  16. Noboru Adachi, Ken-ichi Shinoda, Kazuo Umetsu, and Hirofumi Matsumura, “Mitochondrial DNA Analysis of Jomon Skeletons From the Funadomari Site, Hokkaido, and Its Implication for the Origins of Native American,” American Journal of Physical Anthropology 138:255–265 (2009)
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  20. https://www.researchgate.net/publication/281036097_Jomon_Culture_and_the_peopling_of_the_Japanese_archipelago_advancements_in_the_fields_of_morphometrics_and_ancient_DNA
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  22. Genetic Disorders Of The Indian Subcontinent Archived 2014-01-01 at the Wayback Machine, Dhavendra Kumar, pp. 526, Springer, 2004, ISBN 978-1-4020-1215-0… Comparing the Vedda and Sinhalese populations … genetic divergence between these two groups is likely to have occurred between the populations around 30,000 years ago …
  23.  Evolutionary Pathways in Nature: A Phylogenetic Approach, John C. Avise, Cambridge University Press, 2006, ISBN 978-0-521-85753-6… Thus, the current separation of the island from the mainland dates only to about 10 000 years ago, when the most recent Ice Age glaciers melted and global sea levels rose once again to create the Palk Strait (the present-day shallow …
  24.  Asiaweek, Volume 7 Archived 2016-07-23 at the Wayback Machine, Asiaweek Ltd., 1981, … the Indian subcontinent and Sri Lanka, which was then linked to India by a land bridge across the Palk Strait. Into this terrestrial cul-de-sac filtered bands of prehistoric men who anthropologists believe were ancestors of the Veddahs, Sri Lanka’s aborigines who still hunt and forage deep in the island’s wilds …
  25.  “Deraniyagala, S. U. Early Man and the Rise of Civilisation in Sri Lanka: the Archaeological Evidence”मूल से 5 जनवरी 2014 को पुरालेखित. अभिगमन तिथि 21 जून 2012.
  26.  Political violence in Sri Lanka, 1977-1990: riots, insurrections, counterinsurgencies, foreign intervention, Jagath P. Senaratne, VU University Press, 1997, ISBN 978-90-5383-524-1… There, by a brother-sister marriage, they founded the ‘tribe of barbarians’ (pulinda), as the Veddas are called in the Mahavamsa, as they did not allow themselves to be converted to Buddhism …
  27.  The Veddas, Charles Gabriel Seligmann, Brenda Zara Seligmann, Cambridge University Press, 2010, ISBN 978-1-108-01078-8
  28.  South Asian Folklore: An Encyclopedia : Afghanistan, Bangladesh, India, Nepal, Pakistan, Sri Lanka Archived 2013-09-21 at the Wayback Machine, Peter J. Claus, Sarah Diamond, Margaret Ann Mills, Taylor & Francis, 2003, ISBN 978-0-415-93919-5… Kataragama, as a god, refers both to the Sinhalese version of the Hindu war god Skanda, second son of Siva, and to the autochthonous South Indian god Murukan … love affair with the half-god, half-deer, Vedda goddess Valli … Sinhalese Buddhists, Tamil Hindus, Muslims and Christians all make pilgrimages to Kataragama, a fact of no small interest for a nation rent by decades of interethnic civil war …
  29. Country Information on Namibia (cached page)
  30. Report of the South African Association for the Advancement of Science Archived 2013-07-31 at the Wayback Machine, Rev. Prof Johannes Du Plessis, B.A., B.D., accessdate 5 जुलाई 2010, pages 189–193, 1917
  31. Evolutionary Models and Studies in Human Diversity, Robert J. Meier, Charlotte M. Otten, Fathi Abdel-Hameed, pp. 233, Walter de Gruyter, 1978, ISBN 9783110800043… The only surviving Khoikhoi (Hottentots) all belong to the Nama linguistic division. Khoikhoi speaking other Hottentot languages are now extinct …
  32. जिन्हें हम द्रविड़ कहते हैं
  33. B.S.Guha, “Racial affinities of the peoples of India”, Census of India, 1931, Vol.1, Pt. III, 1935, An Outline of Racial Ethnology of India, 1934, and his Racial Elements in Indian Population, 1944
  34. A.C.Haddon, Races of Man, p.107
  35. J.H.Hutton, Census of Indतक,ia Report, Vol. 1, 1931, p. 460
  36. R.H.Lowie, Primitive Society, p. 303
  37. A.Keane, Man-Past and Present.

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